सौजन्य: दैनिक भास्कर , रायपुर
शनिवार, 28 अगस्त 2010
छत्तीसगढ़ देश में सबसे आगे GDP (सकल घरेलू उत्पाद) में
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
रविवार वाला स्वतन्त्रता दिवस
परसों एक और स्वतंत्रता दिवस "निपटा" घर लौट गये सब छुट्टी मनाने, आराम करने। वही हर साल जैसा यंत्रवत माहौल था। विडंबना देखें कि इस दिन हर संस्था को एक नोटिस निकलवाना पड़ता है कि कल झंडोतोलन के समय सबका उपस्थित होना बहुत जरूरी है, उनके विरुद्ध "एक्शन लिया जाएगा जो इस दिन अनुपस्थित होंगे।
इस बार तो समस्या और भी टेढी थी क्योंकि इस बार यह पर्व रविवार के दिन पड़ा था। समय पर सब पहुंच तो रहे थे, रटे रटाए जुमले उछालते, पर देख कर साफ लग रहा था कि सब के सब बेहद मजबूरी में ही आए हैं। बहुतों से रहा भी नहीं गया और आते ही कहा 'क्या सर, एक तो संडे आता है उस दिन भी !! दसियों काम निपटाने होते हैं।
मन मार कर आए हुए लोगों का जमावड़ा, कागज का तिरंगा थामे बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह घेर-घार कर संभाल रही शिक्षिकाएं, एक तरफ साल में दो-तीन बार निकलती गांधीजी की तस्वीर, नियत समय के बाद आ अपनी अहमियत जताते खास लोग। फिर मशीनी तौर पर सब कुछ जैसा होता आ रहा है वैसा ही निपटता चला जाना। झंडोत्तोलन, वंदन, वितरण, फिर दो शब्दों के लिए चार वक्ता, जिनमे से तीन ने आँग्ल भाषा का उपयोग कर उपस्थित जन-समूह को धन्य किया और लो हो गया सब का फ़र्ज पूरा। आजादी के शुरु के वर्षों में सारे भारतवासियों में एक जोश था, उमंग थी, जुनून था। प्रभात फ़ेरियां, जनसेवा के कार्य और प्रेरक देशभक्ति की भावना सारे लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई थी। यह परंपरा कुछ वर्षों तक तो चली फिर धीरे-धीरे सारी बातें गौण होती चली गयीं। अब वह भावना, वह उत्साह कहीं नही दिखता। लोग नौकरी के या किसी और मजबूरी से, गलियाते हुए, खानापूर्ती के लिए इन समारोहों में सम्मिलित होते हैं। स्वतंत्रता दिवस स्कूल के बच्चों तक सिमट कर रह गया है या फिर हम पुराने रेकार्डों को धो-पौंछ कर, निशानी के तौर पर कुछ घंटों के लिए बजा अपने फ़र्ज की इतिश्री कर लेते हैं। क्या करें जब चारों ओर हताशा, निराशा, वैमनस्य, खून-खराबा, भ्रष्टाचार इस कदर हावी हों तो यह भी कहने में संकोच होता है कि आईए हम सब मिल कर बेहतर भारत के लिए कोई संकल्प लें। फिर भी प्रकृति के नियमानुसार कि जो आरंभ होता है वह खत्म भी होता है तो एक बेहतर समय और इस बात की की आस में कि आने वाले समय में लोग खुद आगे बढ़ कर इस दिन को सम्मान देंगे, सबको इस दिवस की ढेरों शुभकामनाएं।
इस बार तो समस्या और भी टेढी थी क्योंकि इस बार यह पर्व रविवार के दिन पड़ा था। समय पर सब पहुंच तो रहे थे, रटे रटाए जुमले उछालते, पर देख कर साफ लग रहा था कि सब के सब बेहद मजबूरी में ही आए हैं। बहुतों से रहा भी नहीं गया और आते ही कहा 'क्या सर, एक तो संडे आता है उस दिन भी !! दसियों काम निपटाने होते हैं।
मन मार कर आए हुए लोगों का जमावड़ा, कागज का तिरंगा थामे बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह घेर-घार कर संभाल रही शिक्षिकाएं, एक तरफ साल में दो-तीन बार निकलती गांधीजी की तस्वीर, नियत समय के बाद आ अपनी अहमियत जताते खास लोग। फिर मशीनी तौर पर सब कुछ जैसा होता आ रहा है वैसा ही निपटता चला जाना। झंडोत्तोलन, वंदन, वितरण, फिर दो शब्दों के लिए चार वक्ता, जिनमे से तीन ने आँग्ल भाषा का उपयोग कर उपस्थित जन-समूह को धन्य किया और लो हो गया सब का फ़र्ज पूरा। आजादी के शुरु के वर्षों में सारे भारतवासियों में एक जोश था, उमंग थी, जुनून था। प्रभात फ़ेरियां, जनसेवा के कार्य और प्रेरक देशभक्ति की भावना सारे लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई थी। यह परंपरा कुछ वर्षों तक तो चली फिर धीरे-धीरे सारी बातें गौण होती चली गयीं। अब वह भावना, वह उत्साह कहीं नही दिखता। लोग नौकरी के या किसी और मजबूरी से, गलियाते हुए, खानापूर्ती के लिए इन समारोहों में सम्मिलित होते हैं। स्वतंत्रता दिवस स्कूल के बच्चों तक सिमट कर रह गया है या फिर हम पुराने रेकार्डों को धो-पौंछ कर, निशानी के तौर पर कुछ घंटों के लिए बजा अपने फ़र्ज की इतिश्री कर लेते हैं। क्या करें जब चारों ओर हताशा, निराशा, वैमनस्य, खून-खराबा, भ्रष्टाचार इस कदर हावी हों तो यह भी कहने में संकोच होता है कि आईए हम सब मिल कर बेहतर भारत के लिए कोई संकल्प लें। फिर भी प्रकृति के नियमानुसार कि जो आरंभ होता है वह खत्म भी होता है तो एक बेहतर समय और इस बात की की आस में कि आने वाले समय में लोग खुद आगे बढ़ कर इस दिन को सम्मान देंगे, सबको इस दिवस की ढेरों शुभकामनाएं।
शनिवार, 14 अगस्त 2010
ए वतन मेरे वतन, क्या करूं मैं अब जतन !
कविता / गीत
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
सर जमीं से आसमां तक
तुझको है मेरा नमन
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
भूख से, मंहगाई से
जीना हुआ दुश्वार है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
क्या वतन का हाल है
भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचार है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
मद है,मदमस्त हैं
खौफ है, दहशत भी है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
भूख है गरीबी है
सेठ हैं, साहूकार हैं
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
अफसरों की शान है
मंत्रियों का मान है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
आज गम के साए में
चल रहा मेरा वतन
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन !
............................................
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
सर जमीं से आसमां तक
तुझको है मेरा नमन
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
भूख से, मंहगाई से
जीना हुआ दुश्वार है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
क्या वतन का हाल है
भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचार है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
मद है,मदमस्त हैं
खौफ है, दहशत भी है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
भूख है गरीबी है
सेठ हैं, साहूकार हैं
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
अफसरों की शान है
मंत्रियों का मान है
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
आज गम के साए में
चल रहा मेरा वतन
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन
ए वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन !
............................................
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं
लेबल:
'उदय' की कलम से
सोमवार, 2 अगस्त 2010
लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान में छत्तीसगढ़ के कोहिनूर
अभी तक घोषित परिणाम
- श्रीमती अल्पना देशपांडे - वर्ष की श्रेष्ठ चित्रकार
- संजीव तिवारी - वर्ष के श्रेष्ठ क्षेत्रीय लेखक
- ललित शर्मा - वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार आंचलिक
- गिरीश पंकज - वर्ष के श्रेष्ठ ब्लाग विचारक
- जी के अवधिया - वर्ष के श्रेष्ठ विचारक
इन सभी को हार्दिक बधाई




- श्रीमती अल्पना देशपांडे - वर्ष की श्रेष्ठ चित्रकार
- संजीव तिवारी - वर्ष के श्रेष्ठ क्षेत्रीय लेखक
- ललित शर्मा - वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार आंचलिक
- गिरीश पंकज - वर्ष के श्रेष्ठ ब्लाग विचारक
- जी के अवधिया - वर्ष के श्रेष्ठ विचारक
इन सभी को हार्दिक बधाई





रविवार, 1 अगस्त 2010
आमिर खान की नई फिल्म 'पिपली लाईव' का हीरो भिलाई निवासी!
क्या आप जानते हैं आमिर खान की आने वाली फिल्म 'पिपली लाईव' के हीरो 'नत्था' कौन हैं?
इस कतरन को क्लिक कर जानिए मायानगरी में भिलाई के ओंकार का जादू
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पिपली लाईव,
भिलाई,
हबीब तनवीर
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