नृशंश मानवघाती नक्सलवादियों के एक नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी ने सरकार के सामने प्रस्ताव रखा है कि अगर सरकार अपना "ग्रीन हंट " अभियान रोकती है तो वो भी सुरक्षा दलों और सरकारी अधिकारियों पर हमला नहीं करेंगे .
जब अपनी जान पर आ पड़ी तो समझौता करने के लिए प्रयास ? अभी तक जो जाने इनने ली है उसकी सजा कौन भुगतेगा या इन्हे छोड़ दिया जाएगा ?
इस समाचार मे आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है , जिनकी भी ये हत्या करते रहे हैं .इस बात से यह स्पष्ट हो गया है कि इनका कोई जनाधार नहीं है . जनाधार पर आधारित किसी आंदोलन को दुनिया की कोई भी सरकार नहीं दबा सकती है चाहे कितना भी धन बल लगा ले .इनकी असली नजर उस अपर वन एवं खनिज सम्पदा पर थी जो प्रभावित क्षेत्रों मे विद्यमान है . इसका काफी दोहन भी ये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कर चुके हैं , आदिवसियों और वनांचल के ठेकेदारों से वसूली करके . आयकर विभाग अगर सूक्ष्म जाँच करे तो इन नेताओं की अपार संपत्ति का पता लगाया जा सकता है . इनके सारे बड़े नेता दो राज्यों से आते हैं यह किसी से छुपा नहीं है
.
कहाँ हैं इनके समर्थक तथाकथित मानवधिकारवादी, कहाँ है उनका क्षद्म आदिवासी प्रेम . इसकी भी गहन जाँच होनी चाहिए कि इनका क्या संबंध है नक्सलवादियों से .
अगर सरकार किसी भी दबाव मे आकर इनसे कोई भी समझौता करती है तो एक और गलत परंपरा का निर्माण करेगी जैसी भूल उसने पहले भी कश्मीर और पंजाब मे की है . जिन आतंकवादियों को छोड़ दिया गया वे आज भी मुख्य धारा मे शामिल होने के बजाय अलगाववाद का झंडा उठाये घूम रहे हैं .
अब जबकी इनके एक बड़े नेता जिन्होने अपना उपनाम गांधी रखा है लेकिन कार्य बिल्कुल विपरीत हैं सरकार की पकड़ मे हैं , उससे अंदर का सब सच उगलवाने का प्रयास करना चाहिए . किस भी तरह का समझौता एक गलत संदेश लेकर जाएगा कि सामूहिक अत्याचार करो सरकार को दबाव मे डालो और छूट जाओ .
क्या जवाब देगी सरकार उन लोगों के परिवारों को जिनने अपनी जान गवाईं है इनके हाथों ? जिसमें सरकारी से लेकर आम आदिवासी शामिल हैं
जब अपनी जान पर आ पड़ी तो समझौता करने के लिए प्रयास ? अभी तक जो जाने इनने ली है उसकी सजा कौन भुगतेगा या इन्हे छोड़ दिया जाएगा ?
इस समाचार मे आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है , जिनकी भी ये हत्या करते रहे हैं .इस बात से यह स्पष्ट हो गया है कि इनका कोई जनाधार नहीं है . जनाधार पर आधारित किसी आंदोलन को दुनिया की कोई भी सरकार नहीं दबा सकती है चाहे कितना भी धन बल लगा ले .इनकी असली नजर उस अपर वन एवं खनिज सम्पदा पर थी जो प्रभावित क्षेत्रों मे विद्यमान है . इसका काफी दोहन भी ये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कर चुके हैं , आदिवसियों और वनांचल के ठेकेदारों से वसूली करके . आयकर विभाग अगर सूक्ष्म जाँच करे तो इन नेताओं की अपार संपत्ति का पता लगाया जा सकता है . इनके सारे बड़े नेता दो राज्यों से आते हैं यह किसी से छुपा नहीं है
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कहाँ हैं इनके समर्थक तथाकथित मानवधिकारवादी, कहाँ है उनका क्षद्म आदिवासी प्रेम . इसकी भी गहन जाँच होनी चाहिए कि इनका क्या संबंध है नक्सलवादियों से .
अगर सरकार किसी भी दबाव मे आकर इनसे कोई भी समझौता करती है तो एक और गलत परंपरा का निर्माण करेगी जैसी भूल उसने पहले भी कश्मीर और पंजाब मे की है . जिन आतंकवादियों को छोड़ दिया गया वे आज भी मुख्य धारा मे शामिल होने के बजाय अलगाववाद का झंडा उठाये घूम रहे हैं .
अब जबकी इनके एक बड़े नेता जिन्होने अपना उपनाम गांधी रखा है लेकिन कार्य बिल्कुल विपरीत हैं सरकार की पकड़ मे हैं , उससे अंदर का सब सच उगलवाने का प्रयास करना चाहिए . किस भी तरह का समझौता एक गलत संदेश लेकर जाएगा कि सामूहिक अत्याचार करो सरकार को दबाव मे डालो और छूट जाओ .
क्या जवाब देगी सरकार उन लोगों के परिवारों को जिनने अपनी जान गवाईं है इनके हाथों ? जिसमें सरकारी से लेकर आम आदिवासी शामिल हैं
कल रात फिर एक पुलिस वाले की हत्या बंगाल में इनके द्वारा की गयी ???????????
3 टिप्पणियां:
यह ऑपरेशन ग्रीन हंट की सफलता ही है जिसने माओवादियों को बातचीत के लिये विवश कर दिया है। सरकार को इन माओवादियों के बहकावे में नहीं आना चाहिये बल्कि यह लाल-आतंकवाद की ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का समय है।
सरकार को चूड़िया पहन लेनी चाहिए , इनके पास कोई और उपाय ही नहीं है ।
सही लिखा है आपने. एक गलती को सुधार दें. इस नक्सली का नाम कोबाड़ घांडी Kobad Ghandy है, गांधी नहीं. घांडी पारसी उपनाम है. ऐसे लोगों का नाम गांधी से जोड़ कर मीडिया ने महापाप किया है.
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