रविवार, 31 जनवरी 2010

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने अपने पिता का आपरेशन सरकारी अस्पताल में कराया

कोई भी कहेगा इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी ?

यहाँ बात सोचने  की है जब सब राजनेता अपना या अपने  परिवार का इलाज 5 स्टार प्राइवेट अस्पतालों या विदेशों में  करवाते हैं तो क्या सूझी डॉ रमन सिंह को अपने पिता का इलाज एक सरकारी अस्पताल में करवाने की ?
इसका जवाब तो वही दे सकते हैं . एक आव्हान जरूर किया है उन्होने सत्ता से जुड़े लोगों से की जब हम सरकारी का इतना ढ़ोल बजाते हैं तो  उसपर विश्वास  भी करें.

अब तो यह वक्त ही बताएगा का सरकारी व्यवस्था कितना उनके  पथ प्रदर्शन के साथ चलती है .

शनिवार, 30 जनवरी 2010

शराब खराब


शराब खराब

अभी छत्तीसगढ़ में पंचायत चुनाव चल रहे हैं और ऐसे नज़ारे बहुत देखने मिलेंगे । ये शायद देश के सभी हिस्सों की कहानी है ।

बुधवार, 27 जनवरी 2010

भ्रष्टाचार का बोलबाला

भ्रष्टाचार का चारों ओर बोल-बाला है और-तो-और लगभग सभी लोग इसमे ओत-प्रोत होकर डूब-डूब कर मजे ले रहे हैं, आलम तो ये है कि इस तरह होड मची हुई है कि कहीं भी कोई छोटा-मोटा भ्रष्टाचार का अवसर दिखाई देता है तो लोग उसे हडपने-गुटकने के लिये टूट पडते हैं, सच तो ये भी है कि हडपने के चक्कर मे कभी-कभी भ्रष्टाचारी आपस में ही टकरा जाते हैं और मामला उछल कर सार्वजनिक हो जाता है और कुछ दिनों तक हो-हल्ला, बबाल बना रहता है .......फ़िर धीरे से यह मसला किसी बडे भ्रष्टाचारी द्वारा "स्मूथली" हजम कर लिया जाता है .... समय के साथ-साथ हो-हल्ला मचाने वाले भी भूल जाते हैं और सिलसिला पुन: चल पडता है !

भ्रष्टाचार की यह स्थिति अब दुबी-छिपी नही है वरन सार्वजनिक हो गई है, लोग खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार कर रहे हैं कारण यह भी है कि अब भ्रष्टाचार को "बुरी नजर" से नही देखा जा रहा वरन ऎसे लोगों की पीठ थप-थपाई जा रही है और उन्हे नये-नये "ताज-ओ-तखत" से सम्मानित किया जा रहा है।

भ्रष्टाचार के प्रमाण ..... क्यों, किसलिये ..... क्या ये दिखाई नही दे रहा कि जब कोई अधिकारी-कर्मचारी नौकरी में भर्ती हुआ था तब वह गांव के छोटे से घर से पैदल चलकर बस में बैठकर आया था फ़िर आज ऎसा क्या हुआ कि वह शहर के सर्वसुविधायुक्त व सुसज्जित आलीशान घर में निवासरत है और अत्याधुनिक गाडियों में घूम रहा है ..... बिलकुल यही हाल नेताओं-मंत्रियों का भी है ...... क्यों, क्या इन लोगों की लाटरियां निकल आई हैं या फ़िर इन्हे कोई गडा खजाना मिल गया है?

भ्रष्टाचार की दास्तां तो कुछ इतनी सुहानी हो गई है कि .... बस मत पूछिये.... जितनी भ्रष्टाचारियों की वेतन नही है उससे कहीं ज्यादा उनके बच्चों की स्कूल फ़ीस है ...फ़िर स्कूल आने-जाने का डेकोरम क्या होगा ..... !!!!!! कडुवा सच

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

जय हिन्द

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 


इस ब्लॉग को इसका स्वरूप प्रदान किया है भाई ललित शर्मा ने .ब्लॉग जगत की मीटिंग से एक बात और सामने आई की छत्तीसगढ़ में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है .

खून की नदियां बहाना डेमोक्रेटिक और उनके समर्थकों का विरोध करने वाले अनडेमोक्रेटिक,वाट ए क्लासीफ़िकेशन सर जी!

कल एक फ़ोन आया।उधर जो विद्वान थे उन्होने बिना किसी औपचारिकता के रायपुर प्रेस कलब को अनडेमोक्रेटिक ठहरा दिया।कारण रायपुर प्रेस क्लब की बैठक मे लिया गया फ़ैसला था,जिसमे बाहर से आकर स्थानीय मीडिया को बिकाऊ और गैर ज़िम्मेदार कहने वालों का विरोध किया गया था।बैठक मे ये फ़ैसला भी लिया गया था कि ऐसे लोगों को और उनके समर्थकों को प्रेस क्लब अपना मंच नही देगा।बस यही उन्हे नागवार गुज़रा।इसे उन्होने सीधे-सीधे अभिव्यक्ति पर हमला समझा और लगे ज़िरह करने।जिस तरह से वे ज़िरह कर रहे थे ऐसा लगता है कि वे स्वतंत्र या निष्पक्ष न हो कर उन लोगों के पैरवीकार हो जो बस्तर के हरी-भरी वादियों को खून से लाल क रहे हों।

मुझे ये समझ नही आया कि घर मे घुस कर बेवज़ह बिना किसी ठोस आधार के हम सब लोगों को कोई अगर बिकाऊ कहता है तो उसका विरोध करना अनडेमोक्रेटिक कैसे हो गया?या फ़िर हमारे प्रदेश मे खून की होली खेलने वालों के पक्ष मे कांट्रेक्ट पर रोने वाले रूदाली डेमोक्रेट कैसे हो गये?जिनका डेमोक्रेसी पर विश्वास ही नही है,जो बंदूक की नोक पर या खूनी क्रांति के जरिये सत्ता हासिल करना चाहते हैं,उनका समर्थन करना डेमोक्रेटिक कैसे है?ऐसे लोगों को जो डेमोक्रेसी पर विश्वास नही करते,का विरोध अनडेमोक्रेटिक कैसे हो सकता है?

खैर जाने दिजिये! ऐसे लोगों के लिये सिर्फ़ और सिर्फ़ ईश्वर से प्रार्थना ही की जा सकती है कि उन्हे थोड़ी बहुत सद्बुद्धी दे।वैसे जिस फ़ैसले को सारे छत्तीसगढ मे समर्थन मिल रहा है और जिस फ़ैसले पर शहर के बुद्धिजीवियों ने भी एक बैठक लेकर समर्थन की मुहर लगा दी वो फ़ैसला अनडेमोक्रेटिक कैसे हो सकता है?हो सकता है कि दिल्ली के सज्जन शायद दिल्ली यानी देश की राजधानी मे रहने के कारण देश के दूसरे हिस्सों मे रहने वाले लोगों से ज्यादा समझदार हों!या देश के अन्य छोटे शहरों मे रहने वाले लोग निपट गंवार या देहाती हो और वे ही सिर्फ़ होशियार हों!जो भी मुझे ये समझ नही आया दिल्ली मे बैठे लोगों को रायपुर प्रेस क्लब और उससे जुड़े साथियों के सक्रिय होते डेमोक्रेसी की चिंता क्यों सताने लगी?उन्हे इस बात पर कभी चिंता क्यों नही होती कि बस्तर के भीतरी क्षेत्र मे रात को ज़िंदगी ठहर जाती है।जंगलों में अब पक्षियों का कलरव नही बंदूक के फ़ायर गूंजते रहते हैं।शेर की दहाड़ तो कब की गायब हो चुकी है अब तो सिर्फ़ बारूदी सुरंगों के धमाके सुनाई देते हैं।अब जंगलों मे महुये की मदमस्त कर देने वाली खूश्बू नही बल्कि खून की बदबू फ़ैली हुई है।जंगल ऊपर से भले ही हरे दिखते हो अंदर जाओ तो खून से लाल हो चुके हैं।जिस आदिवासी के साथ हुये अन्याय की बात और वंहा विकास न किये जाने की आड़ लेकर खूनी संघर्ष चल रहा है उसी बस्तर मे स्कूल भवन,पंचायत भवन और विकास की ओर जाने वाली सड़कों को नक्सली बारूद से उड़ा दे रहे हैं।विकास की बात करते हैं तो स्कूल अस्पताल,पंचायत भवन और रेस्ट हाऊस क्यों तोड़े जा रहे हैं।

सबसे चौंकाने वाली बात तो ये है बस्तरिहा के साथ अन्याय होने का रोना रोने वाले सभी रूदाली आंध्र-प्रदेश और दूसरे प्रांतो के हैं।बस्तर या छत्तीसगढ के लोगों को उनके नेतृत्व मे काम करना पड़ता है जिनके खुद के प्रदेश में विकास के लिये लड़ाई लडने के बहुत से कारण साफ़ नज़र आते हैं।मगर वे वंहा क्यों ऐसा करेंगे?वे तो वंहा तब संघर्ष करते थे जब वंहा कांग्रेस की सरकार नही होती थी।जब से वंहा कांग्रेस सत्ता मे आई है शायद विकास का पैमाना ही बदल गया है और उनके चशमे से विकास मे अब भाजपा शासित छत्तीसगढ और बीजद शासित उड़िसा ही बाकी रह गया है।आखिर ये दोगला पन क्यों?

खैर ये उनका अपना मामला है लेकिन सिर्फ़ रायपुर प्रेस क्लब के ही विरोध करने से इतनी बैचैनी क्यों?इतनी तेज़ हलचल क्यों?यंहा के विरोध की शुरूआत से दिल्ली मे बैठे लोगों को तक़लीफ़ क्यों?उन्हे ये अनडेमोक्रेटिक नज़र आ रहा है क्यों?क्या चुपचाप गालिंया सुनना ही डेमोक्रेटिक होता है?मैने उन सज्जन को बार-बार बताने की कोशिश की,कि उन्हे हम बोलने से नही रोक रहे हैं।उन्हे जो भी बक़वास करना है करे लेकिन उन्हे हम अपने घर मे बैठ कर बक़वास करने नही देंगे।उन्हे ये भी बताया कि अगर हम लोग मानवाधिकारवादियों के विरोधी होते तो हम लोग प्रेस क्लब मे आई मेधा पाटकर,संदीप पाण्डेय का प्रायोजित विरोध करने वाले से लडते-भीड़ते नही।तमाशाई बनी पुलिस के सामने मेधा एण्ड कंपनी को मारपीट पर उतारू भीड से बचाकर सुरक्षित नही ले जाते और तो और उन्हे प्रेस क्लब मे कान्फ़्रेंस की अनुमति ही नही देते।मगर ये सब बातें उनके दिमाग मे क्यों घुसती भला।वे तो लगता है मोटी फ़ीस लेकर निर्दोष लोगों का खून बहाने वालों की पैरवी करने को डेमोक्रेसी मानने वाले विद्वान थे।खैर जिसे जो समझना है समझे मुझे लगा कि गणतंत्र दिवस पर मैं भी इस नये क्लासीफ़िकेशन का मतलब आप लोगो से पूछ लूं। हो सकता है मुझे कुछ और नई परिभाषा जानने को मिल जाये।

खून की नदियां बहाना डेमोक्रेटिक और उनके समर्थकों का विरोध करने वाले अनडेमोक्रेटिक,वाट ए क्लासीफ़िकेशन सर जी!

गणतंत्र दिवस

गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर इस संकल्प के साथ .....

हमारी दोस्ती, 'खुदा' बन जाए, है इच्छा
अब खुशबू अमन की, 'खुदा' ही बाँट सकता है ।

.....हार्दिक .....हार्दिक .......हार्दिक शुभकामनाएं ।

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