शनिवार, 24 अप्रैल 2010

देश के लिए शहीद हुए जवानों की खातिर इसे जरूर पढ़ें

Dear Sir/Madam ,
SPARE 5-MINUTES from ur busy schedule. PLEASE !!!
Lt. Saurabh Kalia of 4 JAT Regiment of the Indian Army laid down his life at the young age of 22 for the nation while guarding the frontiers at Kargil.
His parents, indeed the Indian Army and nation itself, lost a dedicated, honest and brave son.He was the first officer to detect and inform about Pakistani intrusion. Pakistan captured him and his patrol party of 5 brave men alive on May 15, 1999 from the Indian side of LOC.
They were kept in captivity for three weeks and subjected to unprecedented brutal torture, evident from their bodies handed over by Pakistan Army on June 9, 1999.
The Pakistanis indulged in dastardly acts of inflicting burns on these Indian officers with cigarettes, piercing their ears with hot rods, removing their eyes before puncturing them and breaking most of the bones and teeth.
They even chopped off various limbs and private organs of the Indian soldiers besides inflicting unimaginable physical and mental torture.
After 22 days of torture, the brave soldiers were ultimately shot dead. A detailed post-mortem report is with the Indian Army. Pakistan dared to humiliate India this way flouting all international norms.
They proved the extent to which they can degrade humanity. However, the Indian soldiers did not break while undergoing all this unimaginable barbarism, which speaks volumes of their patriotism, grit, determination, tenacity and valour - something all of India should be proud of.
Sacrificing oneself for the nation is an honour every soldier would be proud of, but no parent, army or nation can accept what happened to these brave sons of India . I am afraid every parent may think twice to send their child in the armed forces if we all fall short of our duty in safeguarding the PRISONERS OF WAR AND LET THEM MEET THE FATE OF LT.SAURABH KALIA.
It may also send a demoralising signal to the army personnel fighting for the Nation that our POWs in Pak cannot be taken care of. It is a matter of shame and disgust that most of Indian Human Rights Organisations by and large, showed apathy in this matter.
Through this humble submission, may I appeal to allthe civilized people irrespective of colour, caste, region, religion and political lineage to stir their conscience and rise to take this as a NATIONAL ISSUE !!!
International Human Rights Organizations must be approached to expose and pressure Pakistan to identify, book and punish all those who perpetrated this heinous crime to our men in uniform.
If Pakistan is allowed to go unpunished in this case, we can only imagine the consequences. Below is the list of 5 other soldiers who preferred todie for the country rather than open their mouths in front of enemy -
1. Sep. Arjun Ram s/o Sh. Chokka Ram; Village & PO Gudi. Teh. & Dist.Nagaur, (Rajasthan)
2. Sep. Bhanwar Lal Bagaria h/o Smt. Santosh Devi; Village Sivelara;Teh.&Dist.Sikar (Rajasthan)3. Sep. Bhikaram h/o Smt. Bhawri Devi; Village Patasar; Teh. Pachpatva;Distt.Barmer (Rajasthan)
4. Sep. Moola Ram h/o Smt. Rameshwari Devi; Village Katori; Teh. Jayal;Dist.Nagaur(Rajasthan)
5. Sep. Naresh Singh h/o Smt. Kalpana Devi; Village Chhoti Tallam;Teh.Iglas ; Dist.Aligarh (UP)
Yours truly, Dr. N.K. Kalia (Lt. Saurabh Kalia's father). Saurabh Nagar,Palampur-176061Himachal Pradesh Tel: +91 (01894) 32065
Please sign in by writing your name and then copy and paste it again to forward it to your friends and relatives. Let us give a supporting hand to Dr.Kalia in his efforts to get justice.
Remember, Lt. Kalia and his colleagues died on the front so that we could sleep peacefully in our homes.
PLEASE DON'T BREAK THE ONWARD MOVEMENT OF THIS MAIL.
WE SEND ALL SORTS OF SILLY MAILS TO OUR FRIENDS WHICH COMPEL ONE TO FORWARD BY SAYING THAT IT MAY HARM YOU IF YOU WON'T DO SO. BUT HERE IT IS NOTHING LIKE THAT, IT WILL ONLY BE YOU WHO WILL FEEL SATISFIED IF YOU WILL CONTRIBUTE TO THE CAUSE.
JAI HIND ....Victory to India !!

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

काँग्रेस को छत्तीसगढ़ में एक आदमी नहीं मिल रहा है राज्य सभा के लिए

राज्य सभा का गठन उच्च सदन के रूप में इस लिए किया गया था की उस क्षेत्र की प्रतिभाओं को देश के सर्वोच्च सदन में स्थान देकर उनके अनुभव का देश हित में उपयोग किया जा सके . काँग्रेस ने यह नियम तोड़ने में देर नहीं की और लोगों को इनाम स्वरूप यह पद बाटना शुरू किया .
छत्तीसगढ़ जो राज्य बनाने से पहले इस पार्टी का गढ़ था आज इससे कोसों दूर दिखाई देता है .मुख्य  कारण दो ही है पहला इस राज्य के लोगों  की केंद्र द्वारा  लगातार  अवहेलना और और राज्य के राजनीतिज्ञों का तुच्छ राजनीति में सलग्न रहना .
केंद्र सरकार में राज्य से एक भी प्रतिनिधि नहीं है . राज्य में दो राज्य सभा की सीट रिक्त हो रही हैं. बीजेपी ने इसकेलिए राज्य के एक व्यक्ति को चुन भी लिया है . काँग्रेस ने अभी तक निर्णय नहीं लिया है लेकिन खबर है की यह सीट किसी बाहरी , हाइ कमान के चरण सेवक को दी जाएगी . कहाँ हैं राहुल गांधी जो पार्टी और देश में राजनीति में एक नयी दिशा स्थापित करने की बात कर रहे थे ?
हो सकता है शायद काँग्रेस ने इस प्रदेश को अपनी प्राथमिकता की सूची से निकाल दिया हो . लेकिन वह यह न भूले  कि इस राज्य के लोग इस घटनाक्रम पर नजर रखे हुए हैं . अगर फिर से काँग्रेस ने किसी बाहरी आदमी को पिछले दरवाजे से प्रवेश दिलवाया तो यह उसकी एक बहुत बड़ी भूल होगी .जनता प्रत्यक्षतः तो विरोध करने की स्तिथी में तो नहीं है लेकिन याद रखेगी .

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

"हजार पच्यासीवें का बाप [बस्तर में जारी नक्सलवाद के समर्थकों के खिलाफ] - राजीव रंजन प्रसाद"


दिल्ली में बैठा हूँ और सुबह सुबह एक प्रतिष्ठित अखबार भौंक गया है, बस्तर के जंगलों में क्रांति हो रही है। लेखिका पोथी पढ पढ कर पंडित हैं, कलकत्ता से बस्तर देखती हैं। दिख भी सकता है, गिद्ध की दृष्टि प्रसिद्ध है, कुछ भी देख लेते हैं। वैसे लाशों और गिद्धों का एक संबंध है और कुछ लेखक इस विषय पर शौकिया लिखते हैं। 

दुनियाँ वैसे भी छोटी हो गयी है, रुदालियाँ किराये पर चुटकियों में उपलब्ध हैं। कुछ एक रुदालियाँ अपने बाँध-फोबिया के कारण जगत प्रसिद्ध हैं, जा कर उनके कान में मंतर भर फूँकना है कि फलाँ जगह बाँध बनना है पूरे दलबल के साथ रोने के लिये हाजिर। रोती भी इतनी चिंघाड चिंघाड कर हैं कि दिल्ली में बाकी काम बाद में निबटाये जाते हैं पहले इनके मुख में निप्पल डालने का इंतजाम जरूरी हो जाता है। एक आध रुदालियाँ तो लिपस्टिक पाउडर लगा कर कुछ भी बोलने के लिये खडी हैं, कैमरे में कुब्बत होनी चाहिये इन्हे बर्दाश्त कर पाने की। हाल ही में बक गयी कि कश्मीर को आजाद कर दो, जैसे इनकी बनायी चपाती है कश्मीर। डेमोक्रेसी है यानी जो जी में आया बको, न बक सको तो लिखो, न लिख सको तो किराये के पोस्टर उठाओ और शुरु हो जाओ ‘दाहिने’ ‘बायें’ थम। 

वह बुदरू का बाप था। “हजार पच्च्यासीवे का बाप” लिखूँगा तो थोडा फैशनेबल लगेगा। हो सकता है कोई बिचारे पर तरस खा कर पिच्चर-विच्चर भी बना दे। मौत तो कई गुना ज्यादा हुई हैं और कहीं अधिक बरबर, फिर भी आँकडे रखने अच्छे होते हैं। आँकडे मुआवजों से जुडते हैं, आँकडे हों तो मानव अधिकार की बाते ए.सी कॉंफ्रेस हॉल में आराम से बैठ कर न्यूयॉर्क में की जा सकती हैं। हजार पच्च्यासीवें का बाप सरकारी रिकार्ड में इसी नम्बर की लाश का बाप था। वह इस देश में चल रही क्रांति के मसीहाओं के हाँथों मारा गया एक आदिम भर तो था। उसके मरने पर कौन कम्बख्त बैठ कर उपन्यास लिखेगा? 

उपन्यास लिखने के लिये बुदरू को कम से कम मिडिल क्लास का होना चाहिये, वैसे यह आवश्यक शर्त नहीं है। आवश्यक शर्त है उसका चक्कर वक्कर चलना चाहिये। रेस्टॉरेंट में बैठ कर पिज्जा गटकते हुए उसे लकडी, हथौडा, पत्थर, मजदूर, यूनियन, मार्क्स और लेनिन पर सिगरेट के छल्ले उडाते हुए डिस्कशन करना आना चाहिये। ‘केरेक्टर’ के पास होनी चाहिये एक माँ, जमाने की सतायी हुई। आधी विक्षिप्त टाईप, जिसके चश्मे का नम्बर एसा होना चाहिये कि चींटी देखो तो हाँथी दिखायी पडे। उसकी माँ का एक हस्बैंड होना चाहिये, एकदम मॉडर्न। हस्बैंड का कैरेक्टरलैस होना सबसे जरूरी शर्त है। उसकी बहन वहन हो तो उसका प्री-मैरिटल या आफ्टर मैरिटल अफैयर होना आवश्यक है। उपन्यास इससे रीयलिस्टिक लगता है।.....। एसे घरों के बच्चे सनकी या रिबेल नहीं होगें क्या? यह सवाल उपन्यासकार/कारा से नहीं पूछा जाना चाहिये चूंकि कई “लेखक यूनियनों” द्वारा श्री श्री पुरस्कृत हैं इसलिये जो लिख जायें वह ‘क्लास’। अर्थात एसे महान घरों से क्रांतिकारी जन्म लेते हैं। अपने बाप के खिलाफ बोलते जिनकी पतलून गीली होती रही वे इस देश को बदलेंगे। अच्छा है, हममें तो इतना गूदा नहीं कि एसे प्लॉट्स को बकवास कह सकें। इस लिये बिचारा हजार पच्च्यासीवे का बाप किसी उपन्यास का विषय नही बन सकता यह तो तय हो गया। लेकिन यह तो किसी नें नहीं कहा कि बाप पत्थर दिल होते हैं, फिर बुदरू का मुडी हुई टाँगों वाला, केवल एक गमछे में अपने वदन को ढके हुए इस तरह पत्थर बना क्यों खडा है?

यह हजार पच्च्यासीवी लाश अदना पुलिस के सिपाही की है। पुलिस का सिपाही यानी कि सिस्टम का हिस्सा। जंगल में दुबके ‘क्रांतिकारियों’ का फिर तो हक बनता है कि इसकी लाश एसी बना दें कि बुदरू की धड में सुकारू का हाथ मिले और सोमारू की गर्दन। खोज खोज कर भी तीन चौथाई ही बटोरा जा सका था वह। पर इस बात के लिये सहानुभूति क्यों? बुदरू का बाप अपने बेटे की लाश पहचाने से इनकार नहीं करता, शर्मिन्दा नहीं होता केवल खोज रहा है उसे पसरी हुई बोटियों में। बुदरु बिचारे की तो कोई तस्वीर भी नहीं और इस हजार पच्च्यासीवें के बाप के पास एसी कोई पक्की दीवाल भी नहीं थी जिस पर तस्वीर जैसी कोई चीज लगती। बुदरु पर लिखने के लिये कोई अखबार तैयार भी नहीं और कोई अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का हराम का पैसा उसकी शोक शभा आयोजित करने में लगा भी नहीं है। वह कोई खुजेली दाढी वाला नहीं कि गिरफ्तार भी होता तो अमरीका से श्वेतपत्र जारी होता, चीन आँसू बहाता, कलकता में राईटर्स लिखते और दिल्ली में कठपुललियाँ नाचतीं। उस पर आंन्दोलित होने वाली कोई रुदाली भी नहीं, वे निर्जज्ज कफन खसोंट हैं, व्यापारी हैं, आतंकवाद समर्थक हैं और बददिमाग भी। हजार पच्च्यासी तो कहिये ज्ञात आँकडा हुआ, लेकिन अनगिनत मौते, लाशे जिनका कोई हिसाब नहीं उनके लिये किसका स्वर बुलंद हुआ है इस एक अरब की आबादी वाले देश में? कहाँ से होगा बुलंद, दुनिया जानती है कि आज आवाज उठाने वाले “पेड” हैं, तनखा पाते हैं इस बात की, जोंक हैं.....काहे की लडाई, कौन सा आंदोलन, कैसी क्रांति? कौन सा व्यवस्था परिवर्तन? बस्तर के आदिमों की लाश पर दिल्ली की सरकार बदल जायेगी, हास्यास्पद। और यह कोई बताये कि दिल्ली, कलकता, चेन्नई, मुम्बई में क्या समाजवाद है, वहाँ शायद एसी लडाईयों की आवश्यकता ही नहीं? वहाँ कोई शोषण नहीं, कोई वर्गविभेद नहीं कोई सामाजिक असमानता नहीं राम राज्य है (साम्प्रदायिक स्टेटमेंट न माना जाये)। लडो भाई, क्रांति करो, भगत सिंह नें कब बस्तर के जंगल में बम फोडा? चंद्रशेखर आज़ाद कब दंडकारण्य में छिप कर लडते रहे? सुभाष नें कब दंतेवाडा चलो का नारा दिया? बटुकेश्वर दत्त को कब आई.एस.आई या कि लिट्टे से हथियार मिले? इनके समर्थन में तो को डाक्टर भी अपनी पोटली ले कर नहीं उतरा न ही रुदालियों नें सिर पीटा, इन महान क्रांतिकारियों पर तो लिखने वालों के कलेजे ही दूसरी मिट्टी के बने थे। खैर तब लेखक यूनियनों में किसी पार्टी-वार्टी के कब्जे भी नहीं होते होंगे कि कुछ भी लिखो पीठ खुजाया जाना तय है। लाल-पीले छंडे की विचारधारा पोषित करते रहो, किताबों के अंबार लगवाओ, रायलटी की बोटी चूसो। इस फिक्सड रैकेट में लेखन कहाँ है? 

हजार पच्च्यासीवीं लाश को गठरी में संभालता वह बाप जानता था कि वह अकेला है, अकेला ही रोयेगा और अकेला ही रह जायेगा। उसके बेटे के कोई मानवाधिकार नहीं, उसका बेटा मानव था भी नहीं, या कभी समझा नहीं गया। उसका बेटा खबर बनने लायक भी नहीं था चूंकि अखबार लिखता है “जंगल में बारूदी सुरंग फटी- आठ मरे”। यह हजार पच्च्यासीवी लाश उन्हीं आठ अभागों में से एक की थी, जिन्हे कुत्तों की तरह मारे जाते देख कर भी रायपुर में सम्मेलन होते हैं फलां सेन को रिहा करो, फलां फलां जगह सरकारी दमन है, फलाँ फलाँ शिविरों में घपले हैं...यहाँ एक विश्वप्रसिद्ध रुदाली की बात करनी आवश्यक है। माननीया को “बाँध-फोबिया” की प्रसिद्ध बीमारी है। पार्ट टाईम में किसी भी पंडाल में लेक्चराती नजर आती हैं, समस्या उन्हे समझ आये तब भी, न समझ आये तब भी, वे खुद वहाँ समस्या हों तब भी। कोई विकास कार्य हो रिहेबिलिटेशन और रिसेटिलमेंट (पुनर्स्थापन और पुनर्वास) पर इनकी थ्योरियाँ सुनी जा सकती हैं। पिछले कई सालों, विशेषकर पिछले पाँच सालों में ही नक्सली हिंसा (महोदया द्वारा मानकीकृत क्रांति) में हजारो हजार आदिवासी अपने घर, जमीन, संस्कृति और शांति खो कर सरकारी रहम पर जी रहे हैं। माननीया आपकी दृष्टि इनपर पडती भी कैसे? इनके बारे में सोच कर किसी फंड का जुगाड शायद नहीं था? खैर आपकी विवशता समझी जा सकती है, आप जगतप्रसिद्ध विकास विरोधी ठहरीं, यहाँ आपके मन का ही तो काम जारी है। इन महान क्रांतिकारियों के फलस्वरूप सडकें नहीं बनती, बिजली बंद है, स्कूलों में ताले हैं बस्तियाँ खाली हैं....जय हो, आपका मोटिव तो सॉल्व है। रही आर एण्ड आर की बात तो जंगल से बेहतर आपके क्रांतिकारी कहाँ सुरक्षित थे तो आदिवासियों के सबकुछ लूटे जाने का सार्वजनिक समर्थन कीजिये। वैसे भी बस्तर आपकी समझ आने से रहा, आपकी कुछ भी समझ आने से रहा। यह विक्षिप्ति की दशा में बहुदा होता है.... 

हजार पच्च्यासीवे का बाप सब कुछ लुटा चुका है। बेटा पढ लिख गया, शायद इसी लिये “रुदाली-कम्युनिटी” को खटक गया। उसे व्यवस्था का हिस्सा मान लिया गया। आदिम तो जानवर ठहरे इन कलमघसीटों की निगाहों में? बस्तर बहुतों को मानव संग्रहालय बना ही ठीक लगता है, इन आदिवासी युवकों को कोई अधिकार नहीं कि मुख्य धारा में आयें। किन परिस्थितियों से निकल कर बुदरू मुख्यधारा में जुडा कोई नहीं जानता। बीमारी उसकी माँ को लील गयी चूंकि गाँव में अस्पताल नहीं (अब बनेंगे भी नहीं, यहाँ क्या डाक्टर मरने को आयेंगे? सुना है क्रांतिकारियों को अवश्य कुछ प्राईवेट डाक्टरों की सेवायें मानव अधिकार सेवा के तहत प्राप्त हैं/थीं/होंगी)। उसके पिता को अब जंगल निषेध है, अपनी जमीन, अपने ही घर गया तो पुलिस का मुखबिर घोषित कर मारा जायेगा, क्रांतिकारियों का इंसाफ है भाई। महान लेखिकायें कहती हैं कि क्रांतिकारी बहुत इंसाफ पसंद होते हैं, अपनी अदालतें लगवाते हैं, खुद ही जज और जनाब खुद ही वकील और सजा भी क्रांतिकारी। तालिबान शरमा जाये, एसी सजायें....। मारो, इस हजार पच्यासीवी लाश के बाप को भी मारो।...। मर तो यह तब ही गया था जब इसकी बेटी महान क्रांतिकारियों के हवस का शिकार हुई, फिर अपहृत भी, अब एसा समझा जाता है कि अब किसी समूह में क्रांतिकारियों के जिस्म की आग को अपनी आहूति देती है। क्रांतिकारियों के जिस्म नहीं होते क्या? उनकी भी तो भूख है, प्यास है फिर इसमें गलत क्या है? ये कोई भगत सिंह तो नहीं कि शादी इस लिये नहीं की कि जीवन देश को कुर्बान। अब जमाना बदल गया है, अब भगत सिंह बन कर तो नहीं रहा जा सकता न? जंगल में पुलिस का डर नहीं और डर के मारे आधे पेट खाने वाले ग्रामीण भी इनके लिये अपने मुर्गे, बकरे खून के आँसू पी पी कर काट रहे है, एक क्रांति के लिये सारी खुराक उपलब्ध है भीतर। और क्या चाहिये?

हजार पच्यासीवे का बाप मीडिया की नजरों में नहीं आयेगा। बिक नहीं सकेगा। वह सनसनी खेज कहानी नहीं बन सकता। वह केवल एक लाश का बाप भर तो है और इस प्रकार की मौत कोई बडी घटना नहीं होती। बडी घटना होती है किसी नक्सली के पकडे जाने पर उससे पूछताछ, एसा करने पर मानवाधिकार का हनन होता है और विश्व बाईनाकुलर लगा कर जंगल में झांकने लगता है। मर भाई बुदरू, तेरा और तेरे जैसों का क्या? तू तो सिस्टम है, तुझे ही तो मिटाना है, तभी क्रांति की पुखता जमीन तैयार होगी। न रहेंगे आदिम जंगल में, न रहेंगे मुखबिर, न होगी एश में खलल। तुम्हारा तो एसा “लाल सलाम” कर दिया कि कोई और बुदरू वर्दी पहने तो रूह काँप उठे।...। जलाओ इस हजार पच्चीसवी लाश की गठरी को और एक और कहानी का खामोश अंत हो जाने दो। 

हजार पच्च्यासीवी लाश के इस बाप का एपेंडिक्स नहीं फटेगा। कहानी का एसा अंत उसके नसीब में नहीं। उसकी किसमत में सलीब है।...। वह तो जानता भी नहीं कि व्यवस्था का हिस्सा उसका बेटा समाज और इंसानियत का इतना बडा दुश्मन था कि उसके खिलाफ बडे बडे बुद्धिजीवी और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी लामबंद है। काश वह देख पाता यह सब कुछ, काश वह जान पाता, काश वह सोच पाता, काश वह लड पाता...।....। एक लडाई आरंभ तो हुई थी। सलवा जुडुम एक आन्दोलन बन कर खडा भी हुआ था लेकिन इस अभियान के पैर भी एक साजिश के तहत तोड दिये गये। बस्तर को औकात में रह कर जीना सीखना ही होगा, वह कोई होटल ताज नहीं कि उसके जख्म देश भर को दिखाई पडें और फिर यहाँ तो कातिल नहीं होते, आतंकवादी नहीं, यहाँ खालिस क्रंतिकारी पाये जाते हैं। जोंक, कम्बख्त.....

******************* 
इस आलेख के साथ मैं जाबांज 76 सिपाहियों को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ जिन्होंने लाल-हिंसा से बस्तर को मुक्त कराने की प्रकृया में अपनी शहादत दे दी। 

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

कहां है, डॉ विनायक सेन से लेकर मेधा पाटकर और मानवाधिकार के नाम का रोना रोने वाले/वाली रूदालियां? और कहां है नक्सलवाद की रुमानियत में डूबी अरुंधती रॉय साहिबा?

Sanjeet Tripathi - Buzz - Public - Muted
बस्तर के दंतेवाड़ा जिले में नक्सल विस्फोट में 75 से ज्यादा जवान शहीद, कई घायल,कई लापता। अब तक की सबसे बड़ी घटना। नमन शहीदों को। लेकिन कहां है, डॉ विनायक सेन से लेकर मेधा पाटकर और मानवाधिकार के नाम का रोना रोने वाले/वाली रूदालियां? और कहां है नक्सलवाद की रुमानियत में डूबी अरुंधती रॉय साहिबा?Edit
1 person liked this - प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
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Akhil Tiwari - sab saale dramabaaz hain..6:27 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
shyam jagota - unke liye to 'SMALL THINGS" hain bhai !!!6:30 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
NADEEM AKHTAR - देखिये बुद्धिजीवियों का जो काम है, वो कर रहे हैं। अगर डॉ विनायक सेन गरीबों-आदिवासियों को मलेरिया से मुक्ति दिलाने के लिए जंगलों की खाक छानते हैं, तो वो कहां से गलत हो गये। अरुंधति राय अगर एक नक्सली दस्ते की अंदुरूनी हकीकत लोगों तक पेश करने के लिए कैंपों की खाक छानती हैं, तो वो कहां से गलत हो गयीं और अगर मेधा पाटकर या फिर अपर्णा सेन नक्सलियों और सरकार के बीच सेतु बनना चाहती हैं, तो वो कैसे गलत हैं। सवाल यह है कि जिन लोगों ने जवानों को मार गिराया है, उनके पास इस बर्बर कार्रवाई के लिए भले ही अपने तर्क हों, लेकिन एक समाज जो हाशिये के ऊपर है, उसकी नज़रों में यह गलत हो सकता है। हमें सिक्के के दोनों पहलुओं पर गौर करना चाहिए, न कि केवल एक ओर ही देखकर निष्कर्ष निकालना चाहिए।6:46 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
Dr. Mahesh Sinha - ये एक और तथाकथित आ गए, याने पाकिस्तान भी जो कर रहा है ठीक कर रहा है7:40 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
HIMANSHU MOHAN - बात नज़रिये की है तो पहला मुद्दा ये है कि हिंसा का समर्थन करने वाला हर तर्क ग़लत ही होता है। हिंसा से हट कर ही दूसरे पहलुओं पर बात हो सकती है, हत्यारों से नहीं।7:51 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
Sameer Lal - शहीदों को नमन!!7:51 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
HIMANSHU MOHAN - शहीदों को श्रद्धांजलि और नमन।7:51 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
Mangal Senacha - मंगल सैणचा परिवार की और से शहीदों को श्रद्धांजलि और नमन।7:52 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
Gyan Dutt Pandey - What Sanjeet is saying is perfectly valid. The pseudo-intellectuals must condemn the barbaric killing of the CRPF personnel. Else how they talk of human rights of people. Terror is terror, and it can not be glorified by the likes of Mr Nadeem.
75 Jawans are killed and we are asked to look at the other side of the Coin! Nadeem probably does not need to have a family member in CRPF or Army. :-(
7:59 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
shyam jagota - ve tathakathit manavadhikaar ke doot tab uthte hain jab police ki goli se koi maara jata hai8:03 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
Sanjeet Tripathi - नदीम जी, इससे पहले कि मैं आपकी बात का जवाब देता
ज्ञानदत्त जी क जवाब पढ़ा मैने। वैसे नदीम जी आप मुझे छत्तीसगढ़ में विनायक सेन जी के किए गए कामों की लिस्ट उपलब्ध करवा सकें तो आभारी रहूंगा।
इसी तरह हमने देखा है, मेधा पाटकर और अरूंधती रॉय समेत
कई बड़े नाम रायपुर से लेकर बस्तर आते हैं तो नक्सलियों के खिलाफ
चलाए जा रहे अभियान को बंद करने की मांग करते हैं
मानवाधिकार की दुहाई देते हैं। पर आश्चर्य यही नाम एक बार भी
नक्सल हिंसा का विरोध करते दिखाई नहीं देते, आप कारणों पर
कुछ प्रकाश डाल सकेंगे?
Edit8:41 pm
Sanjeet Tripathi - और हां , क्या बुद्धिजीवियों का बस यही काम है कि वे नक्सलियों पर
किए जाने वाली पुलिसिया हिंसा का तो विरोध करें लेकिन नक्सलियों द्वारा आज की तरह की जाने वाली हिंसा पर अपना मुंह सीलबंद कर लें?
Edit8:43 pm
11 previous comments from Akhil Tiwari, shyam jagota, NADEEM AKHTAR and 6 others
Dr. Mahesh Sinha - @ nadeem
डॉ विनायक सेन के इतिहास पर भी प्रकाश डालें . ये यहाँ कहाँ से अवतरित हुए और क्यों ?
8:49 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
shyam jagota - संजीत जी ये वही अरुंधती जी हैं जो कश्मीर को आजाद करने का ब्यान भी देचुकी हैं इनहे बटाला हाउस
जैसे मसाले की तलाश रहती है
9:19 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI - हिंसा को लेकर तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता संदेह के घेरे में हैं |
आखिर व्यवष्ठ को लेकर सामजिक हिंसा को जायज ठहराने वाले इन हत्याओं के समय अपने होठों को क्यों सिले रखते हैं? कहीं इनको मिल्राही आर्थिक सहायताएं ....एक कारण तो नहीं !
नक्सलवाद अब नासूर बन चुकाहै और इस नासूर को खत्म करने का साहस राजनैतिक सता दिखा नहीं पा रही है ............ शायद नक्सलवादियों के हौंसले इसीलिए इतने बुलंद हैं?
9:35 pmDeleteUndo deleteReport spamNot spam
Dineshrai Dwivedi - बड़े भाई, नक्सलवाद को नासूर किसने बनाया? उन्हीं डाक्टरों ने जो बीमारी का इलाज करने के बजाए लक्षणों को दबाने का काम करते रहे। जितने हथियार पुलिस से छिने हैं। उन में से कितने बेच दिए गए हैं इस का पता करें। नक्सलवाद नेताओं और नौकरशाही के लिए कमाई का जरिया तो नहीं बन गया है, इस की भी पड़ताल करें।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

"भ्रष्टाचाररूपी दानव"

भ्रष्टाचार .... भ्रष्टाचार ....भ्रष्टाचार की गूंज "इंद्रदेव" के कानों में समय-बेसमय गूंज रही थी, इस गूंज ने इंद्रदेव को परेशान कर रखा था वो चिंतित थे कि प्रथ्वीलोक पर ये "भ्रष्टाचार" नाम की कौन सी समस्या गयी है जिससे लोग इतने परेशान,व्याकुल भयभीत हो गये हैं तो कोई चैन से सो रहा है और ही कोई चैन से जाग रहा है ....बिलकुल त्राहीमाम-त्राहीमाम की स्थिति है .... नारायण - नारायण कहते हुए "नारद जी" प्रगट हो गये ...... "इंद्रदेव" की चिंता का कारण जानने के बाद "नारद जी" बोले मैं प्रथ्वीलोक पर जाकर इस "भ्रष्टाचाररूपी दानव" की जानकारी लेकर आता हूं।

........ नारदजी भेष बदलकर प्रथ्वीलोक पर ..... सबसे पहले भ्रष्टतम भ्रष्ट बाबू के पास ... बाबू बोला "बाबा जी" हम क्या करें हमारी मजबूरी है साहब के घर दाल,चावल,सब्जी,कपडे-लत्ते सब कुछ पहुंचाना पडता है और-तो-और कामवाली बाई का महिना का पैसा भी हम ही देते हैं साहब-मेमसाब का खर्च, कोई मेहमान गया उसका भी खर्च .... अब अगर हम इमानदारी से काम करने लगें तो कितने दिन काम चलेगा ..... हम नहीं करेंगे तो कोई दूसरा करने लगेगा फ़िर हमारे बाल-बच्चे भूखे मर जायेंगे।

....... फ़िर नारदजी पहुंचे "साहब" के पास ...... साहब गिडगिडाने लगा अब क्या बताऊं "बाबा जी" नौकरी लग ही नहीं रही थी ... परीक्षा पास ही नहीं कर पाता था "रिश्वत" दिया तब नौकरी लगी .... चापलूसी की सीमा पार की तब जाके यहां "पोस्टिंग" हो पाई है अब बिना पैसे लिये काम कैसे कर सकता हूं, हर महिने "बडे साहब" और "मंत्री जी" को भी तो पैसे पहुंचाने पडते हैं ..... अगर ईमानदारी दिखाऊंगा तो बर्बाद हो जाऊंगा "भीख मांग-मांग कर गुजारा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा"

...... अब नारदजी के सामने "बडे साहब" ....... बडे साहब ने "बाबा जी" के सामने स्वागत में काजू, किश्मिस, बादाम, मिठाई और जूस रखते हुये अपना दुखडा सुनाना शुरु किया, अब क्या कहूं "बाबा जी" आप से तो कोई बात छिपी नहीं है आप तो अंतरयामी हो .... मेरे पास सुबह से शाम तक नेताओं, जनप्रतिनिधियों, पत्रकारों, अफ़सरों, बगैरह-बगैरह का आना-जाना लगा रहता है हर किसी का कोई--कोई दुखडा रहता है उसका समाधान करना ... और उनके स्वागत-सतकार में भी हजारों-लाखों रुपये खर्च हो ही जाते हैं ..... ऊपर बालों और नीचे बालों सबको कुछ--कुछ देना ही पडता है कोई नगद ले लेता है तो कोई स्वागत-सतकार करवा लेता है .... अगर इतना नहीं करूंगा तो "मंत्री जी" नाराज हो जायेंगे अगर "मंत्री जी" नाराज हुये तो मुझे इस "मलाईदार कुर्सी" से हाथ धोना पड सकता है

...... अब नारदजी सीधे "मंत्री जी" के समक्ष ..... मंत्री जी सीधे "बाबा जी" के चरणों में ... स्वागत-पे-स्वागत ... फ़िर धीरे से बोलना शुरु ... अब क्या कहूं "बाबा जी" मंत्री बना हूं करोडों-अरबों रुपये इकट्ठा नहीं करूंगा तो लोग क्या कहेंगे ... बच्चों को विदेश मे पढाना, विदेश घूमना-फ़िरना, विदेश मे आलीशान कोठी खरीदना, विदेशी बैंकों मे रुपये जमा करना और विदेश मे ही कोई कारोबार शुरु करना ये सब "शान" की बात हो गई है ..... फ़िर मंत्री बनने के पहले जाने कितने पापड बेले हैं आगे बढने की होड में मुख्यमंत्री जी के "जूते" भी उठाये हैं ... समय-समय पर "मुख्यमंत्री जी" को "रुपयों से भरा सूटकेश" भी देना पडता है अब भला ईमानदारी का चलन है ही कहां!!!

......अब नारदजी के समक्ष "मुख्यमंत्री जी" ..... अब क्या बताऊं "बाबा जी" मुझे तो नींद भी नहीं आती, रोज "लाखों-करोडों" रुपये जाते हैं.... कहां रखूं ... परेशान हो गया हूं ... बाबा जी बोले - पुत्र तू प्रदेश का मुखिया है भ्रष्टाचार रोक सकता है ... भ्रष्टाचार बंद हो जायेगा तो तुझे नींद भी आने लगेगी ... मुख्यमंत्री जी "बाबा जी" के चरणों में गिर पडे और बोले ये मेरे बस का काम नहीं है बाबा जी ... मैं तो गला फ़ाड-फ़ाड के चिल्लाता हूं पर मेरे प्रदेश की भोली-भाली "जनता" सुनती ही नहीं है ... "जनता" अगर रिश्वत देना बंद कर दे तो भ्रष्टाचार अपने आप बंद हो जायेगा .... पर मैं तो बोल-बोल कर थक गया हूं।

...... अब नारद जी का माथा "ठनक" गया ... सारे लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और प्रदेश का सबसे बडा भ्रष्टाचारी "खुद मुख्यमंत्री" अपने प्रदेश की "जनता" को ही भ्रष्टाचार के लिये दोषी ठहरा रहा है .... अब भला ये गरीब, मजदूर, किसान दो वक्त की "रोटी" के लिये जी-तोड मेहनत करते हैं ये भला भ्रष्टाचार के लिये दोषी कैसे हो सकते हैं !!!!!!

.... चलते-चलते नारद जी "जनता" से भी रुबरु हुये ..... गरीब, मजदूर, किसान रोते-रोते "बाबा जी" से बोलने लगे ... किसी भी दफ़्तर में जाते हैं कोई हमारा काम ही नहीं करता ... कोई सुनता ही नहीं है ... चक्कर लगाते-लगाते थक जाते हैं .... फ़िर अंत में जिसकी जैसी मांग होती है उस मांग के अनुरुप "बर्तन-भाडे" बेचकर या किसी सेठ-साहूकार से "कर्जा" लेकर रुपये इकट्ठा कर के दे देते हैं तो काम हो जाता है .... अब इससे ज्यादा क्या कहें "मरता क्या करता" ...... ....... नारद जी भी "इंद्रलोक" की ओर रवाना हुये ..... मन में सोचते-सोचते कि बहुत भयानक है ये "भ्रष्टाचाररूपी दानव" ........ ....... !!!!!!!!

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