रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली है भाई होली है

भी को होली के हर्ष एवम उल्लास के पर्व  की हार्दिक शुभकामनाएँ 

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

माओवादियों का “सीजफायर” और दिनकर की “शक्ति और क्षमा” - राजीव रंजन प्रसाद

रात जब संचार माध्यमों नें चीखना आरंभ किया कि माओवादियों नें बहत्तर दिनों के सीजफायर का एलान किया है तो जिज्ञासा इस बात की थी कि उनकी शर्ते क्या हैं? हम महान देश के वासी हैं, हमसे आतंकवादी भी अपनी शर्तों पर बात करते हैं। शर्त स्पष्ट है – ऑपरेशन ग्रीन हंट बंद होना चाहिये। लाल-आतंक के लम्बरदार किशन नें जब यह शर्त सार्वजनिक की तो तुरंत ही मेरा ध्यान दिनकर की प्रसिद्ध कविता “शक्ति और क्षमा” की ओर गया। कविता की एक एक पंक्ति इस घटना से भी जुडती है आईये प्रसंग और संदर्भ के साथ इसकी व्याख्या करें।

अनेकों बारूदी सुरंग विस्फ़ोट हुए, हजारों करोड की सरकारी संपत्ति स्वाहा कर दी गयी, अनेकों अपहरण, फिरौतियाँ और कत्लेआम भी जारी रहे किंतु गणतंत्र की साठवी वर्षगांठ बनाने वाले हम खामोश ही रहे। हमें पाकिस्तान की चिंता थी चूंकि उनके घर की आग में हाथ सेकते हमे मजा आ रहा था। हम रस ले कर सुनते रहे कि कैसे तालिबानी निर्ममता से हत्यायें करते हैं, कैसे बम-बंदूखों के तकिये पर सोते हैं। ठीक इसी वक्त लाल-आतंक तालिबानियों की ही रणनीति पर देश के जंगलों की आड में पनपा। उनकी हर गुस्ताखी पर हमनें कंधे झटके और अपने साहसी सैनिकों की शहादत पर कुछ घडियाली आँसुवों को बहाने के सिवा कुछ भी नहीं किया। दिनकर नें चेताया भी था कि -

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे, कहो, कहाँ कब हारा ?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष, तुम हुये विनत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही।

सहनशीलता एक सीमा से अधिक दुर्गुण है। लाल आतंक के डैने फैलते रहे और हम उन तथाकथित बुद्धिजीवियों के दिखाये सब्ज बाग की हरी भरी सब्जियाँ खाते रहे कि एक दिन क्रांति हो जायेगी और व्यवस्था बदलेगी। सवाल यह कि जिन्हे व्यवस्था से शिकायत है वो सडक पर आयें अपने ठोस सिद्धांतों और वाद-विचार के साथ जनता के बीच जायें, उन्हे जागृत करें तथा मुख्यधारा ही उन्हे एसे बदलाव का रास्ता देती है जहाँ आपके साथ अगर जनता हो तो परिवर्तन अवश्यंभावी है। बंदूख ले कर मासूम आदिवासियों और नीरीह ग्रामीणों की हत्याओं से हिंसा फैला कर क्रांति की आशा भी बेमानी है और वास्तविकता में यह लुटेरापना है।

हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की दुकानें “लाल” माध्यमों से चलती हैं। इस वाद के कर्ता-धर्ता इकट्ठा होने में बेहद यकीन रखते हैं। एक जैसी बात बोलेंगे, एक जैसा लिखेंगे, एक दूसरे की पीठ खुजायेंगे और केवल एक दूसरे को ही पढेंगे। यकीन नहीं होता तो आज किसी भी स्कूल में किसी भी कक्षा में जा कर समकालीन कवियों/लेखकों का नाम ले कर पूछिये उन्हें जानने वालों में किसी के हाथ शायद ही कभी उठते हैं लेकिन साहित्य के ठेकेदारों के पास जाईये तब पता चलता है कि भईया आज कल फलां-फलां समकालीन हैं। खैर फिर वही बात कि जिनकी लेखनी में इतना गूदा भी नहीं कि जन-जागृति करा सकें वे बंदूख से क्रांति के लिये अखबारों के कॉलम और टीवी के फीचर रचते हैं। देखिये हमारी सहनशीलता कि हम इन्हे बर्दाश्त भी करते हैं और नपुंसकों की तरह इनकी न समझ में आने वाली कविताओं/रचनाओं पर तालियाँ भी पीटते हैं। लाल आतंक इसी तरह की बुद्धिजीविता की आड में पनपा और हम इन्हे धिक्कारने की बजाये खामोश और सहनशील रहे। दिनकर कहते हैं -

अत्याचार सहन करने का, कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज, कोमल होकर खोता है।

मैं बस्तर की बात करूंगा। जब आदिवासी आंदोलित हुए और नक्सलवादियों के खिलाफ हथियार उठा लिया तब एक बडी क्रांति हुई। लाल-आतंक और उनके प्रचारक लेखकों को पहले तो यह समझ ही नहीं आया कि आखिर आम आदमी इस तरह अपने मामूली तीर धनुष और नंगा-चौडा सीना लिये नक्सलियों की इम्पोर्टेड बंदूखों के आगे कैसे खडा हो गया। बाद में लाल-प्रचारकों नें आम आदिमों की इस दिलेरी को सरकार-प्रायोजित बता दिया और मीडिया/पुस्तके/अखबार रंग दिये। नक्सलियों के मानव अधिकार पर ए.सी कमरों में कॉकटेल पार्टियाँ हुईं तथा लोगों को गुमराह करने का अभियान जारी रहा। इनकी फंतासी का खैर जवाब भी नहीं लेकिन यह देश इन्हे हर बार क्षमा ही करता रहा....आखिर कब तक। दिनकर कहते हैं -

क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ।

नक्सलियों को हाथी के दाँत दिखा कर काबू में नहीं किया जा सकता था। आतंकवाद से लडने के लिये शास्त्रार्थ से काम चलेगा भी नहीं वर्ना तो बहुत सी महान समाजसेविका टाईप लेखिकायें/लेखक हैं जो इसके लिये विदेशी पैसे से बडे बडे प्रेस कॉंफ्रेंस करती है, भूख हडताल-वडताल करती/करते और करवाती/करवाते हैं। उनसे मीडिया अपने हर कार्यक्रम में बैठा कर संवाद अदायगी करवाता रहता है। खैर मीडिया के काम में बोलने वाले हम कौन? लोकतंत्र का पाँचवा खंबा है जो कि सबसे अधिक पॉलिश्ड है, यहाँ तक कि उसे भीतर लगी दीमक दिखती नहीं है।

सरकारी तंत्र हाँथ जोडे नक्सलियों के आगे पीछे दशकों से घूमता रहा कि “मान जाओ भईया-दादा” लेकिन हाल वैसा ही जैसे सागर नहीं माना था और राम तीन दिवस तक रास्ता ही माँगते रहे। रास्ता तब बताया गया जब राम नें धनुष को अपने कंधे से उतार कर संधान किया -

तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिन्धु किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे-प्यारे ।
उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से ।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि, करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की, बँधा मूढ़ बन्धन में।

ऑपरेशन ग्रीन हंट का नक्सलवाद समर्थक बुद्धिजीवियों/पत्रकारों/मीडिया कर्मियों और लालबुझक्कडों नें खुल कर विरोध किया, लेकिन देखिये राम नें धनुष में अभी प्रत्यंचा ही तो चढाई है, वार्ता की टेबल माओवादियों ने सजा ली है। वे जानते हैं कि जब लिट्टे नहीं रहा जब तालिबान नप गये तो इनकी भी वो सुबह आ ही जायेगी। वार्ता की पेशकश वस्तुस्थिति में ऑपरेशन ग्रीन हंट की सफलता पर मुहर है। नक्सलवाद से निर्णायक मुक्ति का समय आ गया है। वार्ता माओवादियों की शर्तों पर नहीं सरकार की शर्तों पर होनी चाहिये साथ ही नक्सल समर्थी बुद्धिजीवी सारी परिस्थिति पर पानी फेर देंगे इस लिये सीधे माओवादी और सरकार ही सीधे बात करे तब शायद किसी दिशा पर पहुँचा जा सकेगा। यहाँ भी यह सजगता आवश्यक है कि इस सीजफायर की नौटंकी का माओवादी कहीं अपनी ताकत बढानें में इस्तेमाल न करें। दिनकर नें रास्ता बताया है –

सच पूछो , तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की ।
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

Alag sa: क्या होलिका किसी षडयंत्र का शिकार थी. होली पर विशेष.

Alag sa: क्या होलिका किसी षडयंत्र का शिकार थी. होली पर विशेष.

क्या सरकार को नक्सलवादियों की ब्लैकमेलिंग का शिकार होना चाहिए



नृशंश मानवघाती नक्सलवादियों के एक नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी ने सरकार के सामने प्रस्ताव रखा है कि अगर सरकार अपना "ग्रीन हंट " अभियान रोकती है तो वो भी सुरक्षा दलों और सरकारी अधिकारियों पर हमला नहीं करेंगे .

जब अपनी जान पर आ पड़ी तो समझौता करने के लिए प्रयास ? अभी तक जो जाने इनने ली है उसकी सजा कौन भुगतेगा या इन्हे छोड़ दिया जाएगा ?

इस समाचार मे आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है , जिनकी भी ये हत्या करते रहे हैं .इस बात से यह स्पष्ट हो गया है कि इनका कोई जनाधार नहीं है . जनाधार पर आधारित किसी  आंदोलन को दुनिया की कोई भी सरकार नहीं दबा सकती है  चाहे कितना भी धन बल लगा ले .इनकी असली नजर उस अपर वन एवं खनिज सम्पदा पर थी जो प्रभावित क्षेत्रों मे विद्यमान है . इसका काफी दोहन भी ये प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कर चुके हैं , आदिवसियों और वनांचल के ठेकेदारों से वसूली करके . आयकर विभाग अगर सूक्ष्म जाँच करे तो इन नेताओं की अपार  संपत्ति का पता लगाया जा सकता है . इनके सारे बड़े नेता दो राज्यों से आते हैं यह किसी से छुपा नहीं है
.
कहाँ हैं इनके समर्थक तथाकथित मानवधिकारवादी, कहाँ है उनका क्षद्म आदिवासी प्रेम . इसकी भी गहन जाँच होनी चाहिए कि इनका क्या संबंध है नक्सलवादियों से .

अगर सरकार किसी भी दबाव मे आकर इनसे कोई भी समझौता करती है तो एक और गलत परंपरा का निर्माण करेगी जैसी भूल उसने पहले भी कश्मीर और पंजाब मे की है . जिन आतंकवादियों को छोड़ दिया गया वे आज भी  मुख्य धारा मे शामिल होने के बजाय अलगाववाद का झंडा उठाये घूम रहे हैं .

अब जबकी इनके एक बड़े नेता जिन्होने अपना उपनाम गांधी रखा है लेकिन कार्य बिल्कुल विपरीत हैं सरकार की पकड़ मे हैं , उससे अंदर का सब सच उगलवाने का प्रयास करना चाहिए . किस भी तरह का समझौता एक गलत संदेश लेकर जाएगा कि सामूहिक अत्याचार करो सरकार को दबाव मे डालो और छूट जाओ .

क्या जवाब देगी सरकार उन लोगों के परिवारों को जिनने अपनी जान गवाईं है इनके हाथों ? जिसमें सरकारी से लेकर आम आदिवासी शामिल हैं
कल रात फिर एक पुलिस वाले की हत्या बंगाल में इनके द्वारा की गयी ???????????

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

बस एक चित्र


सिर्फ एक चित्र । शब्द क्यों नहीं ? तारीफ में कम पड़ेंगे इसलिए ।

"होली" होले उसके पहले.

होली का त्यौहार कबसे शुरू हुआ यह कहना बहुत ही मुश्किल है। वेदों-पुराणों में इससे सम्बंधित अनेक कथाएं मिलती हैं।

महाभारत में उल्लेख है कि ढोढा नामक एक राक्षसी ने अपने कठोर तप से महादेवजी को प्रसन्न कर अमर होने का वरदान प्राप्त कर लिया था। अंधेरे में रहने के कारण उसे रंगों से बहुत चिढ थी। उसने अपने स्वभावानुसार चारों ओर अराजकता फैलानी शुरू कर दी। तंग आकर लोग गुरु वशिष्ठजी की शरण में गये तब उन्होंने उसे मारने का उपाय बताया। उन्होंने कहा कि सिर्फ निष्पाप बच्चे ही उसका नाश कर सकते हैं। इसलिये यदि बच्चे आग जला कर उसके चारों ओर खूब हंसें, नाचें, गाएं, शोर मचाएं तो उससे छुटकारा पाया जा सकता है। ऐसा ही किया गया और ढोढा का अंत होने पर उसके आतंक से मुक्ति पाने की खुशी में रंग बिखेरे गये। तब से दुष्ट शक्तियों के नाश के लिये इसे मनाया जाने लगा।

दूसरी कथा ज्यादा प्रामाणिक लगती है। कहते हैं कि हमारे ऋषि-मुनियों ने देवताओं, सूर्य, इंद्र, वायू, की कृपा से प्राप्त नये अन्न को पहले, धन्यवाद स्वरूप, देवताओं को अर्पित कर फिर ग्रहण करने का विधान बनाया था। जाहिर है नया अन्न अपने साथ सुख, स्मृद्धि, उल्लास, खुशी लेकर आता है। सो इस पर्व का स्वरूप भी वैसा ही हो गया। इस दिन यज्ञ कर अग्नि के माध्यम से नया अन्न देवताओं को समर्पित करते थे इसलिये इसका नाम ”होलका यज्ञ” पड़ गया था। जो बदलते-बदलते होलिका और फिर होली हो गया लगता है।

इस पर्व का नाम होलका से होलिका होना भक्त प्रह्लाद की अमर कथा से भी संबंधित है। जिसमें प्रभु भक्त प्रह्लाद को उसके पिता हिरण्यकश्यप के जोर देने पर उसकी बुआ होलिका उसे गोद में ले अग्नि प्रवेश करती है पर प्रह्लाद बच जाता है।

इसी दिन राक्षसी पूतना का वध कर व्रजवासियों को श्री कृष्ण जी ने भयमुक्त किया था। जो त्यौहार मनाने का सबब बना।

पर इतने उल्लास, खुशी, उमंग, वैमन्सय निवारक त्यौहार का स्वरूप आज विकृत होता या किया जा रहा है। हंसी-मजाक की जगह अश्लील गाने, फूहड़ नाच, कुत्सित विचार, द्विअर्थी संवाद, गंदी गालियों की भरमार, काले-नीले ना छूटने वाले रंगों के साथ-साथ वैर भुनाने के अवसर के रूप में इसका उपयोग कर इस त्यौहार की पावनता को नष्ट करने की जैसे साजिश चल पड़ी है। समय रहते कुछ नहीं हुआ तो धीरे-धीरे लोग इससे विमुख होते चले जायेंगे।

क्या सच में होलिका अपने प्यारे भतीजे को मारना चाहती थी या वह किसी षड्यंत्र का शिकार बनाई गयी थी।
होली पर विशेष। कल

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

आमचो बस्तर किमचो सुन्दर था [कविता] - राजीव रंजन प्रसाद



मेरा बस्तर, जहाँ अक्सर, घने जंगल में मैं जा कर
किसी तेंदू की छां पा कर, इमलियाँ बीन कर ला कर
नमक उनमें लगा, कच्चा हरा खा कर
दाँतों को किये खट्टा, खुली साँसे लिया करता, बढा हूँ
मैं बचपन से जवानी तक यहीं पला हूँ, पढा हूँ..
मुझे “मांदर” बजाना जब, सुकारू नें सिखाया था
वो एक सप्ताह था, गरदन घुमा भी मैं न पाया था
वो दिन थे जब कि जंगल में, हवा ताजी, उजाले थे
”आमचो बस्तर किमचो सुन्दर, किमचो भोले भले रे”

मगर मुझसे किताबों ने मेरा बस्तर छुडाया है
मुझे अहसास है लेकिन, वो ऋण ही मेरी काया है
मुझे महुवे टपकते नें ही तो न्यूटन बनाया था
मुझे झरते हुए झरने नें कविता भी लिखाई थी
”बोदी” के जूडे में फसी कंघी ही फैशन था
वो कदमों का गजब एका, वो नाचा जब भी था देखा
मेरे अधनंगे यारों की गजब महफिल थी
तूमड में छलकती ताडी में भी जीवन था
बहुत से नौकरी वालों को धरती काला पानी थी
कोई आदिम के तीरों से, किसी को शेर से डर था
मेरा लेकिन यहीं घर था...

मैं अब हूँ दूर जंगल से, बहुत वह दौर भी बदला
मेरे साथी वो दंडक वन के, कुछ टीचर तो कुछ बाबू
मुझे मिलते हैं, जब जाता हूँ, बेहद गर्मजोशी से..
वो यादें याद आती हैं, वो बैठक फिर सताती है
मगर जंगल न जानें की हिदायत दे दी जाती है
यहाँ अब शेर भालू कम हैं, बताया मुझको जाता है
कि भीतर हैं तमंचे, गोलियाँ, बम हैं, डराया मुझको जाता है
तुम्हारा दोस्त “सुकारू” पुलिस में हो गया था
मगर अब याद ज़िन्दा है...

एक भीड है, जो खुद को नक्सलवादी कहती है
घने जंगल में अब यही बरबादी रहती है
हमें ही मार कर हमको ये किसका हक दिलायेंगे
ये मकसदहीन डाकू हैं, हमारा गोश्त खायेंगे
ये लेबल क्रांतिकारी का लगा कर दुबके फिरते हैं
ये वो चूहें हैं, जिनने खाल शेरों की पहन ली है
मगर कौव्वे नहा कर हंस बन जायें, नहीं संभव
हमें जो चाह है उस स्वप्न को हम शांति कहते हैं
लफंगे हैं वो, कत्ल-ए-आम को जो क्रांति कहते हैं..

वो झरना दूर से देखो, न जाना अबकि जंगल में
न फँस जाओ अमंगल में
तुम अपने ही ठिकाने से हुए बेदख्ल हो
तुम्हारे घर में उन दो-मुहे दगाबाजों का कब्जा है
तुम्हारे जो हितैषी बन, तुम्हारी पीठ पर खंजर चलाते हैं
"आमचो बस्तर, किमचो सुन्दर था",
लहू से बेगुनाहों के लाल लाल है
झंडा उठाने वाले जलीलों,
तुम्हारी दलीलें भी बाकमाल हैं
तुम्हारे इन पटाखों से कोई सिस्टम बदलता है?
घने बादल के पीछे से, नहीं सूरज निकलता है
अरे बिल से निकल आओ, अपनी बातों को अक्स दो
हमें फिर जीनें दो, जाओ, हमें बक्श दो...

ऐसी दीवानगी देखी नहीं कहीं....


सौजन्य : राजतन्त्र http://rajtantr.blogspot.com/2010/02/blog-post_21.html

ऐसी दीवानगी देखी नहीं कहीं....

नेताजी स्टेडियम में मुख्यमंत्री एकादश और विधानसभा अध्यक्ष एकादश के बीच मैच प्रारंभ होने से पहले जब भारतीय टीम की खिलाडिय़ों ने मैदान का एक चक्कर लगाया तो सबके मुंह ने यही बात निकली कि हॉकी के एक प्रदर्शन मैच में इतने दर्शक। वास्तव में यह हॉकी खिलाडिय़ों के लिए सुखद और आश्चर्य जनक था कि हॉकी का एक प्रदर्शन मैच देखने के लिए दर्शक टूट पड़े थे। हॉकी खिलाडिय़ों का कहना है कि ऐसी दीवानगी उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी।

हरिभूमि की पहल पर राजधानी रायपुर के नेताजी स्टेडियम में आयोजित मैच में जब खिलाडिय़ों के कदम पड़े तो हर दर्शक खिलाडिय़ों की एक ङालक पाने के लिए बेताब हो गए। ऐसे में खिलाडिय़ों से मैदान का एक चक्कर लगाने के लिए कहा गया। जैसे ही खिलाडिय़ों ने मैदान में चक्कर लगाना प्रारंभ किया तो खिलाड़ी जहां से भी गुजरे वहां पर उनका स्वागत तालियों से किया गया। टीम की सभी खिलाडिय़ों ने एक स्वर में कहा उनको यहां आने से पहले न तो इस बात की कल्पना थी कि यहां पर उनका ऐसा ऐतिहासिक स्वागत होगा और उनका एक प्रदर्शन मैच देखने के लिए इतने ज्यादा दर्शक आ सकते हैं।

टीम के कोच एमके कौशिक, वासु थपलियाल,भारतीय टीम की कप्तान सुरिन्द्रर कौर, सबा अजुंम, ममता खरब के साथ ज्यादातर खिलाडिय़ों ने कहा कि वास्तव में छत्तीसगढ़ ने हमारा जो सम्मान किया है, उसको हम लोग ताउम्र नहीं भूल सकते हैं। इन्होंने कहा कि उनके वास्तव में अब हॉकी स्टिक पकडऩे का मलाल नहीं रहेगा। यहां पर यह बताना लाजिमी होगा कि मैच का आयोजन करने वाले हरिभूमि के प्रबंध संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी ने सुबह को ही प्रेस से मिलिए कार्यक्रम में कहा था कि यहां पर मैच के आयोजन का मसकद महज खिलाडिय़ों को सम्मान राशि देना नहीं बल्कि उनको उनके दिल में यह बात लानी है कि वे यहां से ऐसी यादें लेकर जाए और वे यह कभी महसूस न करें कि उन्होंने हॉकी स्टिक क्यों पकड़ी थी। खिलाडिय़ों की खुशी छुपाए नहीं छुपी रही थी।

दर्शकों ने लिया मैच का भरपूर आनंद

मैच में दर्शकों ने मैच का भरपूर आनंद लिया। खिलाडिय़ों के अच्छे खेल पर उनको दाद मिलती रही। इस बात में कोई दो मत नहीं है कि खिलाडिय़ों को दाद की भूख रहती है। मैच के अंत में यही बात राज्यपाल शेखर दत्त ने भी कही कि खिलाडिय़ों को दाद से ही प्रोत्साहन मिलता है।


मैच की कमेंट्री ने बांध शमा

मैच के दौरान पहले ५ मिनट के खेल के बाद जाने-माने केमेट्रेटर मिर्जा मसूद के साथ गुरमीत सिंह सलूजा ने कमेंट्री करके सबका मन मोह लिया। इनकी कमेंट्री ने दर्शकों को विश्व कप के साथ और कई अंतरराष्ट्रीय मैचों की कमेंट्री की याद दिला दी। मैच में स्टेडियम में बैठने की जगह नहीं थी, कई दर्शकों ने खड़े-खड़े मैच देखा। कोई भी दर्शक देश के राष्ट्रीय खिलाडिय़ों को खेलते देखने का मौका नहीं गंवाना चाहता था।


आतिशीबाजी भी हुई

खिलाडिय़ों के मैदान में आने के साथ ही अतिथियों के भी मैदान में आने के समय जहां जोरदार आतिशीबाजी की गई, वहीं जब खिलाडिय़ों का सम्मान किया जा रहा था,उस समय भी जोरदार आतिशीबाजी ने सबका मन मोह लिया।


छत्तीसगढ़ की खिलाड़ी मैच खेलकर खुश

छत्तीसगढ़ की १० खिलाडिय़ों रेणुका राजपूत, पूनम सोना, शोभा वर्टी, योगिता, लावेन पूजा राजपूत , वर्षा देवांगन, सेवंती कुसरे, माया, प्रियंका को मैच में दोनों टीमों के साथ मिलकर मैच खेलने का मौका मिला। इनको यकीन ही नहीं हो रहा था कि उनको भारतीय टीम की सितारा खिलाडिय़ों के साथ राष्ट्रीय कोच की मार्गदर्शन में खेलने का मौका मिल गया है। मैच के बाद जब उनको सम्मान राशि मिली तो उनकी खुशी दोगुनी हो गई।

'भिलाई में छत्तीसगढ़ का सजग सक्रिय साहित्यिक परिवेश': अशोक वाजपेयी

21 फरवरी 2010 को जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ट पर स्तंभ 'कभी कभार' में अशोक वाजपेयी जी ने भिलाई में छत्तीसगढ़ के सजग सक्रिय साहित्यक परिवेश की तारीफ़ करते हुए साहित्यकारों की रसिकता का जिक्र किया

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

आप ही बताये कि क्या यही छत्तीसगढ़ का चुनाव स्टाइल है ?

कल मैने “द हिन्दू” अखबार मे छत्तीसगढ़ से सँबन्धित एक खबर पढ़ी जिसका शीर्षक था “ Compulsory voting, Chhattisgarh style”. ये अँग्रेजी का समाचार पत्र है अत: इसका शीर्षक अँग्रेजी मे था । अगर मै उसे अनुवाद करूँ तो इसका शीर्षक होगा “अनिवार्य मतदान, छत्तीसगढी तरीका” । मै शीर्षक पढ़कर उत्साहित हुआ कि इस खबर मे अनिवार्य मतदान के किसी नायाब तरीके के बारे मे बताया गया होगा । लेकिन जब इस समाचार को पढना शुरू किया तो पता चला कि ये एक चुनाव से सम्बन्धित समाचार है जिसमे बीजापूर के एक गाँव के पँचायत-चुनाव कि कहानी है जहाँ पर गाँव के कुछ लोगो को चुनाव मे हिस्सा न लेने पर पुलिस वालो द्वारा तथाकथित पिटाई की गयी थी । इस समाचार मे ये भी नही पता नही चला कि इन गाँव वालो से जबरदस्ती वोट डलवाया गया था कि नही । लेकिन मुझे ये बात समझ मे नही आयी कि इसमे अनिवार्य मतदान वाली कौन सी बात हो गयी। और क्या छत्तीसगढ़ के एक गाँव मे घटित किसी घटना को सँदर्भ देकर उसे छत्तीसगढ़ का स्टाइल कहा जा सकता है ? क्या इसे छत्तीसगढ़ मे अनिवार्य मतदान का तरीका करके प्रचारित किया जाना चाहिए ? मै इसे प्रचारित इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि इस समाचार को आधार बनाकर आगे ये बात दोहरायी जाएगी कि छत्तीसगढ़ मे पँचायत चुनाव मे ग़ाँव वालो की मर्जी नही चलती । छत्तीसगढ़ मे तो केवल पुलिस वालो की ही चलती है और वो जिस प्रत्याशी को चाहे उसे उसके पक्ष मे मतदान करवा सकते है । और हद कि सीमा तब पार होगी जब इस समचार को उस समाचार से जोड़ा जायेगा जिसमे ये कहा जायेगा कि छत्तीसगढ़ मे तो कानून नाम कि कोइ चीज ही नही है । और इस तरह के कुतर्को की दुनिया खडी हो भी रही है जिसमे कहा जा रहा है छत्तीसगढ़ मे सँविधान नाम कि कोइ चीज नही है । और ये सब बाते प्रचारित किया जा रहा है उन लोगो के द्वारा जिन्हे छत्तीसगढ़ के बारे या तो कुछ पता ही नही है या उन्हे केवल उतनी ही बाते पता है जितना अमन सेठी ( Author of Compulsory voting, Chhattisgarh style) जैसे लोगो ने बतायी है । हमे एतराज इस बात से नही है कि आप किसी विषेश मुद्दे को जन-समुदाय तक पहूँचाना चाहते है बल्कि तकलीफ इस बात से होती है कि इस एक प्रसँग को आगे रखकर ऐसे झूठ का पुतला खडा किया जाता है जो छत्तीसगढ़ से जितना दूर होते जाता है उस पूतले कि अटटाहस उतनी ही बढ़्ती जाती है । और एक समय ऐसा आता है जब इस पुतले कि अटटाहस मे झूठ का पुलिँदा पूरी तरह ढँक जाता है ।

अमन सेठी के इस लेख को पढने से केवल यही लगेगा कि ये तो एक साधारण रिपोर्टिँग है और ये तो हर पत्रकार का कर्तब्य है कि वो समाज मे होने वाली अच्छी-बुरी बातो को सबके सामने लाये । गूगल सर्च मे अमन सेठी के बारे मे सर्च करने से ये पता चल जायेगा कि वो किस तरह के पत्रकार है । मुझे उंसके बारे मे ज्यादा जानकारी नही है लेकिन गुगल सर्च (aman sethi Chhattisgarh) से जो बात सामने आयी वो ये कि अमन सेठी जी का रूची छत्तीसगढ़ के नक्सली समस्या के बारे मे है । अमन साहब की कोइ रिपोर्ट मैने छत्तीसगढ़ के चुनाव के मामले मे नही देखी । अगर अमन सेठी साहब छत्तीसगढ़ के चुनाव कि रिपोर्टिग नही करते है तो उन्हे छत्तीसगढ़ मे होने वाले पँचायत चुनाव के बारे मे कितनी जानकारी होगी उसका अँदाजा आप लगा सकते है । और इस अल्पज्ञान के आधार पर कोइ “छत्तीसगढ़ मे अनिवार्य मतदान के तरीके” पर कोइ कितना सही बात कह सकता है उसे साधारण पाठक भी समझ सकते हैँ । हो सकता है कुछ लोगो को इसमे बुराई नजर ना आती हो लेकिन जिस तरह से अमर सेठी ने इस लेख का टाइटल दिया है उससे तो यही लगता है कि सेठी साहब कि मानसिकता केवल छत्तीसगढ़ को बदनाम करने की है । या तो ये शीर्षक इस लेख के लिए अनुपयुक्त है या ये भी हो सकता है कि अमन सेठी अपने समचार मे वजन डालने के लिए ही इस शीर्षक का उपयोग किया हो । लेकिन दोनो ही परिपेक्ष मे एक आम छत्तीसगढिया का आहत होना स्वाभाविक है । ऐसा लगता तो नही कि इतने नामी-गिरामी पत्रकार ने बिना वजह से ऐसे शीर्षक का चुनाव किया हो । तो क्या अपने लेख मे वजन डालने के लिए ही किसी को छत्तीसगढ़ के बारे मे भ्रमित जानकारी देने की स्वतँत्रता होनी चाहिए? छत्तीसगढ़ को बदनाम करने का सवाल इसलिए भी पैदा होता है क्योँकि छत्तीसगढ़ के चुनाव मे कई अभूतपुर्व चीजेँ भी हुई है , लेकिन इन अभूतपुर्व चीजोँ के बारे मे शायद अमन सेठी जैसे लोग देखना नही चाहते या फिर जानबूझकर इसके बारे मे लिखना नही चाहते ।

छत्तीसगढ़ के कई गाँव मे पँच और सरपँच निर्विरोध चुने गये है, अगर आप छत्तीसगढ से सँबन्धित समचार मे रूची रखते है तो ऐसे एक नही कई उदाहरण मिल जायेँगे जहाँ छत्तीसगढ़ के गाँवो ने आपसी सहमती से मिलकर अपने पँच और सरपँच चुन लिए । अभनपुर के पास एक गाँव के बारे मे समाचार मे ये बात पढ़ी थी और इसी तरह के कुछ समाचार अम्बिकापुर और बिलासपुर के बारे मे भी पढ़ा था । इस गाँव के बुजुर्गो ने चुनाव के नामाँकन के पहली ही सँभावित उम्मीदवारो के बीच ठीक उसी प्रक्रिया से चुनाव किया जिस तरीके से सरकारी चुनाव होते है । एक डमी चुनाव प्रक्रिया का पालन गाँव के बुजुर्गो की देख रेख मे वैसे ही सम्पन्न हुआ जैसा कि वास्तविक चुनाव मे होता है । इस चुनाव के परिणाम के आधार पर केवल उन्ही प्रतयाशियो ने नामाँकन पत्र दाखिल किया जो पहले के डमी-चुनाव मे विजयी घोषित हुए थे । इस चुनाव प्रक्रिया का अगर गहरायी से अध्ययन करे तो हमे ऐसे तथ्य मिलेँगे जिसके बारे मे हम सोच भी नही सकते । ये कैसे सँभव हुआ कि गाँव के सभी लोगो ने सहमति से बुजुर्गो की बातो पे भरोसा किया ? सामुहिक फैसला कैसे किया गया ? वो कौन सी बाते थी जो इन सामुहिक फैसलो के विरूद्ध लोगो को जाने से रोके रखा ? लोगो के दिमाग मे ये बाते क्योँ आयी कि गाँव मे निर्विरोध चुनाव होना चहिए ? इन निर्विरोध चुनाव का गाँव के सामाजिक, राजनितिक और आर्थिक स्थितियोँ पर क्या प्रभाव हुआ । इस गाँव मे इस चुनाव की प्रक्रिया जितनी शालीनता से सम्पन्न हुई इसके बारे मे अगर कोइ ईमानदारी से बात करे तो ये गाँव राष्ट्रपति पुरस्कार के अधिकारी होँगे । अभनपुर के इस गाँव के चुनाव प्रक्रिया की विधी को अगर परिष्क़ृत करके दुनिया के सामने प्रस्तुत करे तो छत्तीसगढ़ का ये छोटा सा गाँव दुनिया को लोकतँत्र का वो चेहरा दिखायेगी जिसके बारे मे दुनिया वाले सोंच भी नही सकते । इस चुनावी माडल को अगर हम केवल भारत मे लागू कर सके तो दुनिया मे भूख, भ्रष्टाचार और प्रशासन के दुरूपयोग की बाते इतिहास के पन्नो मे समाहित हो जाये । लेकिन शायद अमन सॆठी साहब जैसे लोग इस माडल की बात करना पसॅँद नही करेँगे क्योँकि अगर छत्तीसगढ़ के एक गाँव के लोकतँत्र-माडल से प्रशासन के दुरूपयोग की बाते दूर हो गयी तो शायद सेठी साहब जैसे लोगो की रोजी – रोटी छीन जाये । मैने आपसी सहमती से चुनाव वाली अधिकाँश बाते केवल इँटरनेट के माध्यम से ही पढी, और अगर आप छत्तीसगढ़ मे रहकर वहाँ के अखबार को खँगाले तो ऐसे कई उदाहरण मिल जायेँगे । मगर ऐसे समाचार पढने के लिए आपको एक सावधानी बरतनी पढेगी और वो ये कि आपको छतीसगढ़ के हिन्दी पत्रिका या समाचार-पत्र पढ़ने पढेँगे । अगर आप अँग्रेजी के समाचार-पत्र मे ये समाचार ढुँढने जायेँगे तो आपको चिराग लेके ढुँढना पडेगा और तब भी ये जरूरी नही है कि आपको इस तरह के समाचार अँग्रेजी अखबारो मे मिले ।

मैँ सीजी-नेट का सक्रिय सदस्य हूँ जहाँ से मुझे छत्तीसगढ़ के बारे मे सारी जानकरी मिलती रहती है । छत्तीसगढ़ के उपर अँग्रेजी मे छपने वाले लगभग सभी महत्वपुर्ण जानकारियाँ मुझे यहाँ से मिल जाती है । पिछले 1 महीने से छत्तीसगढ़ मे पँचायत चुनाव जोरो पर था जिसके बारे मे मुझे छत्तीसगढ़ के समाचार पत्रो से और दुसरे माध्यम से जानकारी मिलती रहती थी । पिछले महीने मैने जितनी बार फोन से बात की (घर वालो से और दोस्तो से) उनमे छतीसगढ़ के पँचायत चुनाव का जिक्र हर बार हुआ है और मेरे हिसाब से ये छत्तीसगढ़ के लिए बहुत ही महत्वपुर्ण घटना थी । लेकिन अँग्रेजी के अखबारो मे कभी इस पँचायत चुनाव के बारे मे समाचार प्रकाशित नही हुआ (कुछ हुआ भी हो तो मेरी नजर मे नही आ पायी या कोइ मेरे साथ कुतर्क करने के लिए एक – दो खबरे ले आये तो मै उन लोगो से माफी चाहूँगा) । मुझे लगा कि छत्तीसगढ़ का पँचायत चुनाव अँग्रेजी अखबारो के लिए महत्वपूर्णॅ नही है । लेकिन पुरे चुनाव होने की बाद कल मैने सीजीनेट पर ये समाचार देखा । मैने जब इस समचार का शीर्षक देखा तो मै प्रसंन्न-चित्त हो गया कि छत्तीसगढ़ के लोगो के उपर अँग्रेजी अखाबारो कि नजर पड़ी । लेकिन मै गलत था । अँग्रेजी अखाबारो कि नजर छत्तीसगढ़ पर पड़ी तो जरूर थी मगर वो गिद्ध – दृष्टी जैसी नजर थी, जिनका केवल एक ही निशाना था कि शिकार को कैसे पकड़ॆ । जिन्हे छत्तीसगढ़ मे अगर कुछ दिखायी दिया था तो वो केवल माँस का टुकडा था जिसे वो नोच-कर चबाकर अपना पेट भरना चाहता था ।

हो सकता कि मै कुछ ज्यादा ही प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा हूँ । मेरी श्री मति जी जो अभी इस लेख को सँपादन के दौरान पढ रही है तो उसे भी लग रहा है कि मै जरूरत से ज्यादा प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा हूँ , लेकिन दोस्तो ये बात सोचने लायक है कि अँग्रेजी अखबार को पुरे पँचायत चुनाव मे देखने को जो मिला वो केवल एक अपवाद्पूर्ण घटना थी जिसका छत्तीसगढ़ के पुरे पँचायत चुनाव से कोइ सम्बन्ध नही था और उस एक घटना को “छत्तीसगढ़ मे अनिवार्य मतदान का तरीका” बता कर दुनिया वालो के सामने परोसा जाए तब ये सवाल पैदा होता है कि ऐसी रिपोर्टिग ने दुनिया के सामने छत्तीसगढ़ का कौन सा स्वरूप प्रस्तूत किया है । और अगर मै ये कहू कि ये समाचार छत्तीसगढ़ का गलत चेहरा प्रस्तूत करता है तो क्या मैँ गलत हूँ ? क्या छत्तीसगढ़ के किसी आदमी का ऐसे गलत तरीके से प्रस्तुत किए गए समाचार पर आक्रोशित होने का हक नही है ? अगर रिपोर्टर अपनी बात कहने के लिए स्वतँत्र है तो क्या एक छत्तीसगढिया को ये कहने का हक नही है कि साहब आपकी गलत बातो से एक छत्तीसगढिया को ठेस पहूँची है ।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

माइक्रोसॉफ़्ट का हिन्दी लिखने वाला औज़ार





संजीव तिवारी जी  के अनुरोध पर लिंक

यहाँ देखिये

बहुओं ने उठाई अर्थी और पुत्री ने दी मुखाग्नि

छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर की एक घटना

सौजन्य :  दैनिक नवभारत, रायपुर







ब्लॉगर कार्यशाला में क्या हो?

अब जबकि छत्तीसगढ़ में ब्लॉगर कार्यशाला के आयोजन की रूप रेखा बनने लगी है ये जान लेना बहुत जरुरी है की एक आम ब्लॉगर की जरूरतें और समस्याएं कौन कौन सी है । अगर आप इस बारे में अपनी राय दें तो ये जान पाने में आसानी होगी ।

तो आपसे ये सवाल है कि आपके अनुसार ब्लॉगर कार्यशाला में क्या क्या होना चाहिए ??

आप अपनी टिप्पणी यहाँ भी दे सकते है या चाहे तो hinditechblog@gmail.com पर मेल भी कर सकते हैं ।
आपसे सहयोग की अपेक्षा है ।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

अमीर किसान-गरीब किसान

हमारा देश किसानों का देश है कुछ वर्ष पहले तक एक ही वर्ग के किसान होते थे जिन्हे लोग 'गरीब किसान' के रूप में जानते थे जो सिर्फ़ खेती कर और रात-दिन मेहनत कर अपना व परिवार का गुजारा करते थे लेकिन समय के साथ-साथ बदलाव आया और एक नया वर्ग भी दिखने लगा जिसे हम 'अमीर किसान' कह सकते हैं।

... अरे भाई, ये 'अमीर किसान' कौन सी बला है जिसका नाम आज तक नहीं सुना .....और ये कहां से आ गया ... अब क्या बतायें, 'अमीर किसान' तो बस अमीर किसान है .... कुछ बडे-बडे धन्ना सेठों, नेताओं और अधिकारियों को कुछ जोड-तोड करने की सोची.... तो उन्होने दलालों के माध्यम से गांव-गांव मे गरीब-लाचार किसानो की जमीनें खरीदना शुरू कर दीं... और फ़िर जब जमीन खरीद ही लीं, तो किसान बनने से क्यों चूकें !!! ......... आखिर किसान बनने में बुराई ही क्या है........ फ़िर किसानी से आय मे 'इन्कमटैक्स' की छूट भी तो मिलती है साथ-ही-साथ ढेर सारी सरकारी सुविधायें भी तो है जिनका लाभ आज तक बेचारा 'गरीब किसान' नहीं उठा पाया ।

........ अरे भाई, यहां तक तो ठीक है पर हम ये कैसे पहचानेंगे कि अमीर किसान का खेत कौनसा है और गरीब किसान का कौन सा ? ............ बहुत आसान है मेरे भाई, जिस खेत के चारों ओर सीमेंट के खंबे और फ़ैंसिंग तार लगे हों तो समझ लो वह ही अमीर किसान का खेत है, थोडा और पास जाकर देखोगे तो खेत में अन्दर घुसने के लिये बाकायदा लोहे का मजबूत गेट लगा मिलेगा, तनिक गौर से अन्दर नजर दौडाओगे तो एक शानदार चमचमाती चार चक्का गाडी भी खडी दिख जायेगी ...... तो बस समझ लो यही 'अमीर किसान' का खेत है ।

........... अब अगर अमीर किसान और गरीब किसान में फ़र्क कुछ है, तो बस इतना ही है कि अमीर किसान के खेत की देखरेख साल भर होती है, और गरीब किसान के खेत में साल भर में एक बार "खेती" जरूर हो जाती है

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

रविवार डॉट कॉम क्या एक निष्पक्ष मंच है

निशाने पर आदिवासी

raviwar.com पर नीचे दिए गए पोस्ट पर मैंने एक टिप्पणी की थी . जिसे प्रकाशन के उपयुक्त नहीं समझा गया .वैसे किसी भी साईट या ब्लॉग का यह अपना अधिकार है कि वह किस टिप्पणी को छापे और किसे नहीं . इस टिप्पणी को आप भी देखिये और बताइए कि इसे नहीं छापकर इस मंच ने अपने एक तरफ़ा दृष्टिकोण को ही सच साबित किया है या  नहीं.

मेरी टिप्पणी यह थी :-
"बड़ी अच्छी बात है की दूरस्थ वनंअंचलो में इतनी जन जागृति आ गयी और उन्होने हथियारों और गोला बारूदों की फ़ैक्टरि भी लगा ली जो शहरो में बैठे माफिया और डॉन नहीं कर पाये और उन्हें दूसरे देशों में पनाह लेना पड़ा .
सीखो कुछ तो सीखो शहरों में रहने वालों डरो मत एक पूरी फौज खड़ी है एक नयी क्रांति लाने . इतने बड़े बड़े लोग तुम्हारे साथ हैं लेकिन फिर भी तुम डरते हो क्यों . काहिल डरपोक तुम्हारे कारण ही हमारा स्वर्णिम अभियान नहीं सफल हो रहा है .
चेतावनी सुन लो लेकिन जिस दिन हम शक्तिशाली हो गए तुम्हारी ऐसी बैंड बजाएंगे की तुम्हें नानी याद आ जाएगी .
लाल सलाम "


निशाने पर आदिवासी

संदीप पांडेय


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