गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

मैं एक ईमानदार भ्रष्टाचारी हूँ !

भाई साहब मैं मर जाऊंगा
मेरी धड़कनें रुक जायेंगी
सांस लेना मुश्किल हो जाएगा
मेरी बीवी घर से निकाल देगी
शान-सौकत सब चली जायेगी
किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहूँगा
मुझे करने दो, थोड़ा-बहुत ही सही
पर मुझे भ्रष्टाचार कर लेने दो !

मैं भ्रष्ट हूँ, भ्रष्टाचारी हूँ
इरादतन भ्रष्टाचार का आदि हो गया हूँ
आज तक एक भी ऐसा काम नहीं किया
जिसमे भ्रष्टाचार किया हो
लोग मेरे नाम की मिसालें देते हैं
मुझे जीने दो, मेरी हाय मत लो
मेरी हाय तुम्हें चैन से बैठने नहीं देगी
क्यों, क्योंकि मैं एक ईमानदार भ्रष्टाचारी हूँ !

मेरी नस नस में भ्रष्टाचार दौड़ रहा है
दिल की धड़कनें भ्रष्टाचार से चल रही हैं
मान लो, मेरी बात मान लो
मुझे, सिर्फ मुझे, भ्रष्टाचार कर लेने दो
तुम हाय से बच जाओगे
और मेरी दुआएं भी मिलेंगी
यही मेरी पहली और अंतिम अर्जी है
क्यों, क्योंकि मैं एक ईमानदार भ्रष्टाचारी हूँ !
.............................

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

नहीं, मैं दलाल नहीं हूँ !

हाँ भई मैं खबरीलाल ही हूँ
नहीं, मैं दलाल नहीं हूँ
और ही बिचौलिया हूँ
हाँ, अगर आप चाहें तो
मुझे एक गुड मैनेजर
एक्सपर्ट या को-आर्डीनेटर
कह या सोच सकते हैं !

हाँ अब मैं भी लिखते-पढ़ते
झूठ-सच बयां करते करते
खिलाडियों का खिलाड़ी हो गया हूँ
कब किसको पटकनी देना
और किसको पंदौली दे उठाना है
इशारों ही इशारों में समझ कर
शह-मात की चालें चल रहा हूँ !

क्यों ..... क्योंकि मैं भी
कभी कभी मंत्रियों-अफसरों
और उद्योगपतियों के साथ
उठ-बैठ सांठ-गांठ कर
छोटे-मोटे काम बेख़ौफ़
निपटा-सुलझा-उलझा रहा हूँ
और मैनेजमेंट गुरु बन गया हूँ !

भला इसमें बुराई ही क्या है
नेता-अफसर-मंत्री सभी तो
यही सब कुछ कर रहे हैं
छोटे-बड़ों को मैनेज कर रहे हैं
मुझे भी लगा, मौक़ा मिला
मैं भी कूद पडा मैदान में
अब गुरुओं का गुरु बन गया हूँ !!!

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

... उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!!

मैं भ्रष्ट हूँ, भ्रष्टाचारी हूँ
जाओ, चले जाओ
तुम मेरा, क्या उखाड़ लोगे !
चले आये, डराने, डरता हूँ क्या !
गए, डराने, उनका क्या कर लिया
जो पहले सबकी मार मार कर
धनिया बो-और-काट कर चले गए !

चले आये मुंह उठाकर
नई-नवेली दुल्हन समझकर
आओ देखो, देखकर ही निकल लो
अगर ज्यादा तीन-पांच-तेरह की
तो मैं पांच-तीन-अठारह कर दूंगा !
फिर घर पे खटिया पर बैठ
करते रहना हिसाब-किताब !

समझे या नहीं समझे
चलो फूटो, फूटो, निकल लो
जो पटा सकते हो, पटा लेना
जो बन सके उखाड़ लेना !
मेरे साब, उनसे बड़े साब
और उनके भी साब
सब के सब खूब धनिया बो रहे हैं
क्या कभी उनका कुछ उखाड़ पाए !

चले आये मुंह उठाकर
मुझे सीधा-सादा समझकर
फिर भी करलो कोशिश
कुछ पटाने की, उखाड़ने की !
शायद कुछ मिल जाए
नहीं तो, चुप-चाप चले आओ
दंडवत हो, नतमस्तक हो जाओ
कुछ कुछ देता रहूंगा
तुम्हारा भी खर्च उठाता रहूंगा !

क्यों, क्या सोचते हो
है विचार दंडवत होने का
गुरु-चेला बनने का
कभी तुम गुरु, कभी हम गुरु
कभी हम चेला, कभी तुम चेला
या फिर, हेकड़ी में ही रहोगे ?
ठीक है, तो जाओ, चले जाओ
उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो !!!
.....................................

तो क्या तुम अब, हमारी जान ही ले लोगे !!!

शनिवार, 13 नवंबर 2010

नेशनल साइंस ड्रामा फेस्टिवल के लिए मोना माडर्न स्कूल,सारंगढ़ का चयन

नेशनल साइंस ड्रामा फेस्टिवल के लिए एक बार फिर छ.ग. से मोना माडर्न स्कूल,सारंगढ़ का चयन.नेहरु साइंस सेंटर, मुबई में आयोजित इस कॉम्पिटिशन में पहले भी मोना स्कूल का चयन २००८-२००९ में हो चूका हे जिसमे राष्ट्रिय स्तर पर स्कूल को तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था.इस बार भी नेशनल साइंस ड्रामा फेस्टिवल , नेहरू साइंसे सेंटर ,मुंबई में आयिजित है.जिसमे पश्चिम भारत के अन्य राज्यों के साथ छ. ग. का प्रतिनिधित्व करते हुए मोना माडर्न हा. से. स्कूल सारंगढ़ , इस प्रतियोगिता में अपनी मजबूत दावेदारी पेश करेगी

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

घने जंगल में खूबसूरत फूल: चंद्रू [एक संस्मरण, बस्तर के जंगलों से] – राजीव रंजन प्रसाद


बात कोई तेरह -चौदह वर्ष पुरानी है। उस रात जब केवल मेरे कमरे में आया तो उसके चेहरे में एक चमक थी। पत्रकारों को किसी नई कहानी के मिलने का एसा ही सुकून होता है जैसा ताजी कविता लिखी जाने के बाद पहले श्रोता को उसे सुना दिये जाने का। चन्द्रू आज उसकी कहानी था। नारायणपुर के जंगलों से थके हारे होने की थकान कहीं नहीं दिखती थी बल्कि वह अपनी उपलब्धि के एक एक पल और वाकये से मुझे अवगत करा देना चाहता था।

केवल अपने यायावर स्वभावानुकूल उन दिनों “दण्डकारण्य समाचार” छोड कर देशबंधु से जुड गया था। देशबंधु अखबार ने ही “हाईवे चैनल” नाम के सान्ध्य अखबार का आरंभ किया था जिसके स्थानीय अंक का कार्यभार देखने के उद्देश्य से केवल उन दिनों जगदलपुर में ही था।

“मुझे आलोक पुतुल नें फोन कर के बताया कि बस्तर में किसी आदिवासी लडके पर फिल्म बनी है और उस पर स्टोरी करनी चाहिये। मुझे मालूम था कि ये असंभव सा काम है। मुझे आगे पीछे की कोई जानकारी नहीं थी। न फिल्म का नाम पता था न किसने बनाई है वो जानकारी थी।” केवल के स्वर में अपनी खोज को पूरी किये जाने का उत्साह साफ देखा जा सकता था।

“अबे ‘बस्तर एक खोज’ तू स्टोरी तक भी पहुँचेगा कि सडक ही नापता रहेगा।” मैंने स्वभाव वश उसे छेड दिया था।

“तू पहले पूरी बात सुन लिया कर।...। मैं अपना ‘क्लू’ ले कर बसंत अवस्थी जी के पास गया उन्होंने मुझे किन्ही इकबाल से मिलने के लिये कहा जो आसना में रहते हैं। उनसे इतना तो पता चला कि नारायणपुर के किसी आदिवासी पर एसी फिल्म बनी है। तुरंत ही मैनें “नारायणपुर विशेष” लिखने के नाम पर अपना टूर बनाया लेकिन दिमाग में यही कहानी चल रही थी। नारायणपुर पहुँच कर बहुत कोशिशों के बाद मुझे चन्द्रू के विषय में जानकारी मिली”

“आखिरकार तेरी सडक कहीं पहुँची तो..” मैने मुस्कुरा कर कहा। हालांकि मैं जिज्ञासु हो गया था कि यह चंद्रू कौन है? कैसा है? उसपर फिल्म क्यों बनी?

“ये अंतराष्ट्रीय फिल्म का हीरो चन्द्रू उस समय घर पर नहीं था जब मैं गढबंगाल में उसके घर पर पहुँचा। वो झाड-फूंक करने पडोस के किसी गाँव गया हुआ था” केवल नें बताया।

“कैसा था चंद्रू का घर” मैंने अनायास ही बचकाना सवाल रख दिया। मेरी उत्कंठा बढ गयी थी।

“जैसा बस्तरिया माडिया का होता है। तुझे क्या मैं शरलॉक होम्स की स्टोरी सुना रहा हूँ? वही मिट्टी का मकान, वही गोबर से लिपी जमीन, वही बाँस की बाडी।...। मुझे वहाँ बहुत देर तक उसका इंतजार करना पडा।“

“मुलाकात हुई?” यह प्रश्न जानने की जल्दबाजी के कारण मैंने किया था।

“मुलाकात!!! उसे अब न फिल्म में अपने काम की याद थी न फिल्म बनाने वालों की। उसके लिये फिल्म एक घट गयी घटना की तरह थी जिसके बाद वह लौट आया और फिर आम बस्तरिया हो गया। उसकी जीवन शैली में कोई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म का हीरो नहीं था यहाँ तक कि उसकी स्मृतियों या हावभाव में भी एसा कुछ किये जाने का दर्प या आभास नहीं था....”

“कितनी अजीब बात है न?”

“अजीब यह भी था कि उसके पास अपने किये गये काम की कोई जानकारी या तस्वीर भी नहीं थी। बहुत ढूंढ कर उसने एक किताब निकाल कर दिखाई और बताया कि इसमें उसकी फिल्म की तस्वीर है। वह इतनी बुरी हालत में थी कि उसे किताब नहीं कह सकते थे। अंग्रेजी की इस पुस्तक को मैने जानकारी मिलने की अपेक्षा में उससे माँग लिया।“

“वो क्यों देगा? उसके पास वही आखिरी निशानी रही होगी अपने काम की?”

“वही तो आश्चर्य है। उसने बडे ही सहजता से पुस्तक मुझे दे दी। मैं उसे लौटा लाने का वादा कर के उसे ले आया हूँ। किताब को अभी सिलने और बाईंड कराने के लिये दे कर आ रहा हूँ।”

केवल नें चंद्रू का एक चित्र सा खींच दिया था। मेरी कल्पना में वह “मोगली” या “टारजन”जैसा ही था। चंद्रू को सचमुच क्या मालूम होता कि उसने क्या काम किया है या कि उसने केवल को जो पुस्तक दी है खुद उसके लिये कितने मायने रखता है। जंगल से अधिक उसके लिये शायद ही कुछ मायने रखता होगा?

केवल से मैं उसकी इस कहानी के विषय में जानने की कोशिश करता रहा। उसने कहानी अलोक पुतुल को देशबंधु कार्यालय भेज दी थी। आलोक नें उस कहानी में श्रम कर तथा उसमें अपने दृष्टिकोण को भी जोड कर संवारा और फिर यह देशबंधु के अवकाश अंक में प्रकाशित भी हुआ। चंद्रू को चर्चा मिली और यह भी तय है कि अपनी इस उपलब्धि और चर्चा से भी वह नावाकिफ अपनी दुनिया में अपनी सल्फी के साथ मस्त रहा होगा। उन ही दिनों इस स्टोरी पर चर्चा के दौरान ही केवल नें मुझे बताया था कि संपादक ललित सुरजन अवकाश अंक पर इस स्टोरी के ट्रीटमेंट से खुश नहीं थे और उनकी अपेक्षा इस अनुपम कहानी के ‘और बेहतर’ प्रस्तुतिकरण की थी। यद्यपि कहानी यहीं समाप्त नहीं हुई। न तो केवल की और न ही चन्द्रू की।

केवल के साथ मैं धरमपुरा में दादू की दुकान पर चाय पी रहा था। केवल की आवाज में आज चन्द्रू की बात करते हुए वह उत्साह नहीं था।

“तूने चन्द्रू को किताब वापस कर दी?” मैने बात आगे बढाई।


“हाँ, मैं किताब और अखबार की रिपोर्ट के साथ नारायणपुर जा रहा था। कांकेर में कमल शुक्ला से मिलने के लिये रुक गया। वही एक और पत्रकार साथी हरीश भाई मिले। स्टोरी को पढने के बाद वो इतने भावुक हो गये कि उसे ले कर कही चले गये...जब लौटे तो उनके हाथ में एक फोटोफ्रेम था जिसमें यह खबर लगी हुई थी।“

“फिर तू चन्द्रू से मिला?”

“मैं जब गढबंगाल पहुँचा तो चन्द्रू घर पर नहीं था। घर के बाहर ही चन्द्रू की माँ मिल गयी जो अहाते को गोबर से लीपने में लगी हुई थी।“

“तूने इंतजार नहीं किया?”

“नहीं मैं देर शाम को ही पहुँचा था और मुझे लौटना भी था। जब मैने अपने आने का कारण चन्द्रू की माँ को बताया और उसे जिल्द चढी किताब के साथ फोटो फ्रेम में मढी खबर दी...”

“खुश हो गयी होगी?”

“नहीं। उसने जो सवाल किया मैं उसी को सोचता हुआ उलझा हुआ हूँ”

“तू भी पहेलियों में बात करता है”

“चन्द्रू की माँ ने कुछ देर फोटो फ्रेम को उलटा-पलटा। अपने बेटे की तसवीर को भी देखने की जैसे कोई जिज्ञासा उसमें दिखी नहीं..फिर उसने मुझसे कहा – ‘तुम लोग तो ये खबर छाप के पैसा कमा लोगे? कुछ हमको भी दोगे?”

“फिर?” मुझे एकाएक झटका सा लगा।

“पहले पहल ये शब्द मुझे अपने कान में जहर की तरह लगे। फिर मुझे इन शब्दों के अर्थ दिखने लगे। मैने शायद पचास या साठ रुपये जो मेरे पास थे उन्हे दे दिये थे और अपने साथ यही सवाल के कर लौट आया हूँ कि ‘हमको क्या मिला?’...” केवल नें गहरी सांस ली थी।

आज बहुत सालों बाद चन्द्रू फिर चर्चा में है। जी-टीवी का चन्द्रू पर बनाया गया फीचर ‘छत्तीसगढ़ के मोगली’ को राज्योत्सव में सम्मानित किया जा रहा है। मैं स्तब्ध हूँ कि चन्द्रू को खोज निकालने वाला केवलकृष्ण, उसे ढूंढ निकालने की सोच वाला आलोक पुतुल...कोई भी तो याद नहीं किया जा रहा। मैं आज फिर चन्द्रू की माँ के उसी प्रश्न को भी देख रहा हूँ जो कि पुरस्कार और उत्सव बीच निरुत्तर भटक रहा है – “हमें क्या मिला?”

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

आसमान ... छू ले छत्तीसगढ़ !

... छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस - १ नवंबर के अवसर के लिए "छत्तीसगढ़ थीम सांग " तैयार करने हेतु छत्तीसगढ़ सरकार प्रयत्न कर रही है ... देश की नामी-गिरामी हस्तियों से संपर्क का प्रयास जारी है ... इसी बीच मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न "एक प्रयास " कर लिया जाए ... दौड़ में शामिल होने का नहीं वरन "थीम सांग / गीत / गान " लिखने का ... प्रयास किया हूँ जो प्रस्तुत है आपकी सकारात्मक / नकारात्मक प्रतिक्रया की आशा है, धन्यवाद ... !
..........................
आसमान ... छू ले छत्तीसगढ़ !
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हम हैं ... हम हैं
छत्तीसगढ़ी हम है

बढे हैं हम, बढ़ रहे हैं
छत्तीसगढ़ को गढ़ रहे हैं

शान हमारी छत्तीसगढ़
पहचान हमारी छत्तीसगढ़

चल छत्तीसगढ़, बढ छत्तीसगढ़
आसमान ... छू ले छत्तीसगढ़ !

जय जय ... जय जय छत्तीसगढ़
हमारा छत्तीसगढ़, सुनहरा छत्तीसगढ़ !!!

हम
हैं ... हम हैं
छत्तीसगढ़ी हम हैं

है जान से प्यारा छत्तीसगढ़
ईमान हमारा छत्तीसगढ़

गाँव-गाँव, और शहर-शहर
देश में प्यारा छत्तीसगढ़

चल छत्तीसगढ़, बढ़ छत्तीसगढ़
आसमान ... छू ले छत्तीसगढ़ !!

जय जय ... जय जय छत्तीसगढ़
हमारा छत्तीसगढ़, सुनहरा छत्तीसगढ़ !!!

हम हैं ... हम हैं
छत्तीसगढ़ी हम हैं

माटी संग, महतारी संग
खेतों संग, खलिहानों संग

गाँव-किसान, संगवारी-मितान
संग संग चल, बढ़ता चल

चल छत्तीसगढ़, बढ़ छत्तीसगढ़
आसमान ... छू ले छत्तीसगढ़ !!!

जय जय ... जय जय छत्तीसगढ़
हमारा छत्तीसगढ़, सुनहरा छत्तीसगढ़ !!!

हम हैं ... हम हैं
छत्तीसगढ़ी हम हैं

शान अलग ... पहचान अलग है
देश में ... स्वाभीमान अलग है

चलो-चलें ... हम सब छत्तीसगढ़
रचें-बसें ... हम सब छत्तीसगढ़

चल छत्तीसगढ़, बढ़ छत्तीसगढ़
आसमान ... छू ले छत्तीसगढ़ !!!

जय जय ... जय जय छत्तीसगढ़
हमारा छत्तीसगढ़, सुनहरा छत्तीसगढ़ !!!

हम हैं ... हम हैं
छत्तीसगढ़ी हम है

हरियाली ... खुशहाली है
खिल-खिल बहती नदियाँ हैं

समभाव ... सर्व-धर्म है
भाईचारा और अपनापन है

महानदी पावन पवित्र है
अर्धकुंभ ... ही महाकुंभ है

चल छत्तीसगढ़, बढ़ छत्तीसगढ़
आसमान ... छू ले छत्तीसगढ़ !!!!

जय जय ... जय जय छत्तीसगढ़
हमारा छत्तीसगढ़, सुनहरा छत्तीसगढ़ !!!
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हमारा छत्तीसगढ़, सुनहरा छत्तीसगढ़
..........

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

हर पक्ष का ध्येय जब पूजा अर्चना ही है तो फिर विवाद क्यों?

विड़ंबना है या देश का दुर्भाग्य। ध्येय एक ही होने के बावजूद दसियों सालों से अयोध्या का विवाद क्यों है? जबकि हर पक्ष वहां पूजा, अर्चना ही करना चाहता है।
जिसकी पूजा करनी होती है वह श्रद्धेय होता है। उसके सामने झुकना पड़ता है। अपना बर्चस्व भूलाना पड़ता है। यहां लड़ाई है मालिक बनने की। अपने अहम की तुष्टी की। वही अहम जिसने विश्वविजयी, महा प्रतापी, ज्ञानवान, देवताओं के दर्प को भी चूर-चूर करने वाले रावण को भी नहीं छोड़ा था।

या फिर नजरों के सामने हैं - तिरुपति, वैष्णवदेवी या शिरड़ीं ?

रायपुर की एक सुबह

पाबला जी के एक आलेख को पढ़कर एक प्रयास, छोटे से कैमरा का कमाल । रिकॉर्डिंग avi फ़ारमैट में थी पिक्चर बहुत अच्छे थे लेकिन फाइल साइज़ कुछ 900 एमबी थी इसलिए इसे एमपी4 में कन्वर्ट करके अपलोड किया । बताइये कैसा है यह प्रयास। और पिक्चर quality  कैसी है  
http://www.youtube.com/watch?v=KT499jR4s4g

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

अयोध्या विवाद ... देश वासियों से एक मार्मिक अपील !!!

अयोध्या ... राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवादास्पद स्थल के स्वामित्व विवाद पर आगामी कुछ दिनों में हाईकोर्ट लखनऊ द्वारा अपना फैसला सुनाये जाने की पूर्ण संभावना है

दावे-प्रतिदावे, तर्क-वितर्क का अपना-अपना महत्त्व है पर यहाँ पर मेरा मानना है कि कभी कभी सब निर्थक से जान पड़ते हैं, प्रश्न यहाँ सार्थकता निर्थकता का नहीं है, प्रश्न है मानवीय संवेदनाओं तत्कालीन परिस्थितियों का

एक तरफ दावे-प्रतिदावे, तर्क-वितर्क हों और दूसरी तरफ मानवीय संवेदनाएं वर्त्तमान परिस्थितियाँ हों, ऐसी स्थिति में हमारी मानवीय व्यवहारिक सोच क्या जवाब देती है यह भी विचारणीय है

एक प्रश्न धार्मिक आस्था विश्वास का भी है, यहाँ मेरा मानना है कि धर्म मानवीय जीवन के अंग हैं इन्हें हम मानवीय जीवन के साथ मान सकते हैं बढ़कर नहीं, यदि धार्मिक आस्थाएं विश्वास शान्ति सौहार्द्र का प्रतीक बनें तो अनुकरणीय सराहनीय हैं

जहां स्थिति विवाद की हो ... विवादास्पद हो ... वहां प्रश्न राम जन्मभूमि या बाबरी मस्जिद का नहीं होना चाहिए, और ही हिन्दू मुसलमानों की धार्मिक आस्थाओं का ... प्रश्न होना चाहिए हिन्दुओं मुसलमानों की भावनाओं संवेदनाओं का ... यह वह घड़ी है जब हिन्दुओं मुसलमानों को अपनी अपनी सार्थक सकारात्मक सोच व्यवहार का प्रदर्शन करते हुए मानवीय हित देश हित में एक मिशाल पेश करना है

मेरा मानना तो यह है कि अब हिन्दुओं मुसलमानों को मानवीय हित, सौहार्द्र शान्ति का पक्षधर होते हुए यह निश्चय कर लेना चाहिए कि अदालत तो अपना फैसला सुनाएगी ही, फैसला पक्ष में हो या विपक्ष में, पर हमारा - हम सबका फैसला शान्ति सौहार्द्र के पक्ष में है, देश हित में है

इस विवादास्पद मुद्दे पर मेरी अपील सिर्फ हन्दू-मुसलमानों से नहीं है वरन उन धार्मिक संघठनों राजनैतिक पार्टियों से भी है जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस मुद्दे से जुड़े हुए हैं, हम सभी शान्ति सौहार्द्र के पक्ष में सोचें कदम बढाएं

साथ ही साथ मेरा यह भी मानना है कि हिन्दू, मुसलमान, धार्मिक संघठन, राजनैतिक पार्टियां ... सभी औपचारिकता अनौपचारिकता के दायरे से बाहर निकलें तथा मानवीय हित, शान्ति सौहार्द्र के पक्षधर बनें

अयोध्या विवाद ... कोई चुनावी, राजनैतिक, खेल, हार-जीत जैसा प्रतिस्पर्धात्मक मुद्दा नहीं है और ही हो सकता है ... इसलिए इस पहलू पर हम सब की सोच व्यवहार सिर्फ ... सिर्फ ... और सिर्फ शान्ति सौहार्द्र की पक्षधर होनी चाहिए ... जय हिंद !!!

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

जब सिगरेट के कारण मोतीलालजी को फ़िल्म छोड़नी पड़ी

पहले के दिग्गज फिल्म निर्देशकों को अपने पर पूरा विश्वास और भरोसा होता था। उनके नाम और प्रोडक्शन की बनी फिल्म का लोग इंतजार करते थे। उसमे कौन काम कर रहा है यह बात उतने मायने नहीं रखती थी। कसी हुई पटकथा और सधे निर्देशन से उनकी फिल्में सदा धूम मचाती रहती थीं। अपनी कला पर पूर्ण विश्वास होने के कारण ऐसे निर्देशक कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं करते थे। ऐसे ही फिल्म निर्देशक थे वही. शांताराम। उन्हीं से जुड़ी एक घटना का जिक्र है -

उन दिनों शांतारामजी डा. कोटनीस पर एक फिल्म बना रहे थे "डा। कोटनीस की अमर कहानी।" जिसमें उन दिनों के दिग्गज तथा प्रथम श्रेणी के नायक मोतीलाल को लेना तय किया गया था। मोतीलाल ने उनका प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया था। शांतारामजी ने उन्हें मुंहमांगी रकम भी दे दी थी। पहले दिन जब सारी बातें तय हो गयीं तो मोतीलाल ने अपने सिगरेट केस से सिगरेट निकाली और वहीं पीने लगे। शांतारामजी बहुत अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। उनका नियम था कि स्टुडियो में कोई धुम्रपान नहीं करेगा। उन्होंने यह बात मोतीलाल से बताई और उनसे ऐसा ना करने को कहा। मोतीलाल को यह बात खल गयी, उन्होंने कहा कि सिगरेट तो मैं यहीं पिऊंगा।

शांतारामजी ने उसी समय सारे अनुबंध खत्म कर डाले और मोतीलाल को फिल्म से अलग कर दिया। फिर खुद ही कोटनीस की भूमिका निभायी।


क्या आज के इक्के-दुक्के लोगों को छोड़ किसी में ऐसी हिम्मत हो सकती है ?

रविवार, 12 सितंबर 2010

... श्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं !!!



... एक नव गीत सृजन की इच्छा हुई ..... सृजन आपके समक्ष प्रस्तुत है ... आपकी प्रतिक्रया की आशा है ... धन्यवाद !!!

बप्पा बप्पा गणपति बप्पा
विघ्न विनाशक गणपति बप्पा

तेरे-मेरे गणपति बप्पा
हम सबके हैं गणपति बप्पा

गणपति बप्पा, गणपति बप्पा
घर घर विराजे गणपति बप्पा

जय जय बोलो गणपति बप्पा
गणपति बप्पा, गणपति बप्पा

लडडू लाओ, लडडू चढाओ
खाओ-खिलाओ गणपति बप्पा

आँगन-आँगन ढोल बजाओ
बिराज गए हैं गणपति बप्पा

गणपति बप्पा, गणपति बप्पा
हम सबके हैं गणपति बप्पा

सबसे आगे गणपति बप्पा
सबके संग-संग गणपति बप्पा

जोर से बोलो गणपति बप्पा
जय जय बोलो गणपति बप्पा

सिद्धि विनायक गणपति बप्पा
बप्पा बप्पा, गणपति बप्पा

विघ्न विनाशक गणपति बप्पा
बप्पा बप्पा, गणपति बप्पा

जय जय बोलो गणपति बप्पा
गणपति बप्पा, गणपति बप्पा !

... श्री गणेश चतुर्थी की हार्दिक शुभकामनाएं !!!

बुधवार, 8 सितंबर 2010

थीम सांग ........ कॉमनवेल्थ गेम्स - 2010

... पिछले कुछ दिनों से कॉमनवेल्थ गेम्स के थीम सांग पर उंगलियाँ उठ रही हैं, पढ़ कर मन में एक नया गीत / कविता लिखने की इच्छा हुई ..... जो आपके समक्ष प्रस्तुत है आपकी प्रतिक्रया की आशा है ... धन्यवाद ...


आओ बढ़ें, चलो चलें
हम सब मिलकर खेल चलें

खेल भावना से खेलें
सरहदों को भूल चलें

खेल भावना हो हार-जीत की
सरहदों में लड़ें - भिड़ें

हार जीत हैं खेल के हिस्से
पर हम खेलें, मान बढाएं

आओ बढ़ें, चलो चलें
हम सब मिलकर खेल चलें !

हर आँखों में बसे हैं सपने
खेल रहे हैं मिलकर अपने

कोई गोरा, कोई काला
जीत रहा जो, वो है निराला

जीतेंगे हम, जीत रहे हैं
मिलकर सब खेल रहे हैं

खेल खिलाड़ी खेल रहे हैं
खेल भावना जीत रही है

आओ बढ़ें, चलो चलें
हम सब मिलकर खेल चलें !

तुम खेलोगे, हम खेलेंगे
मान बढेगा, शान बढेगा

तुम जीतो या हम जीतें
एक नया इतिहास बनेगा

जीतेंगे हम खेल भावना
खेल भावना, खेल भावना

खेल चलें, चलो चलें
हर दिल को हम जीत चलें

आओ बढ़ें, चलो चलें
हम सब मिलकर खेल चलें !

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

रविवार वाला स्वतन्त्रता दिवस

परसों एक और स्वतंत्रता दिवस "निपटा" घर लौट गये सब छुट्टी मनाने, आराम करने। वही हर साल जैसा यंत्रवत माहौल था। विडंबना देखें कि इस दिन हर संस्था को एक नोटिस निकलवाना पड़ता है कि कल झंडोतोलन के समय सबका उपस्थित होना बहुत जरूरी है, उनके विरुद्ध "एक्शन लिया जाएगा जो इस दिन अनुपस्थित होंगे।

इस बार तो समस्या और भी टेढी थी क्योंकि इस बार यह पर्व रविवार के दिन पड़ा था। समय पर सब पहुंच तो रहे थे, रटे रटाए जुमले उछालते, पर देख कर साफ लग रहा था कि सब के सब बेहद मजबूरी में ही आए हैं। बहुतों से रहा भी नहीं गया और आते ही कहा 'क्या सर, एक तो संडे आता है उस दिन भी !! दसियों काम निपटाने होते हैं।

मन मार कर आए हुए लोगों का जमावड़ा, कागज का तिरंगा थामे बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह घेर-घार कर संभाल रही शिक्षिकाएं, एक तरफ साल में दो-तीन बार निकलती गांधीजी की तस्वीर, नियत समय के बाद आ अपनी अहमियत जताते खास लोग। फिर मशीनी तौर पर सब कुछ जैसा होता आ रहा है वैसा ही निपटता चला जाना। झंडोत्तोलन, वंदन, वितरण, फिर दो शब्दों के लिए चार वक्ता, जिनमे से तीन ने आँग्ल भाषा का उपयोग कर उपस्थित जन-समूह को धन्य किया और लो हो गया सब का फ़र्ज पूरा। आजादी के शुरु के वर्षों में सारे भारतवासियों में एक जोश था, उमंग थी, जुनून था। प्रभात फ़ेरियां, जनसेवा के कार्य और प्रेरक देशभक्ति की भावना सारे लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई थी। यह परंपरा कुछ वर्षों तक तो चली फिर धीरे-धीरे सारी बातें गौण होती चली गयीं। अब वह भावना, वह उत्साह कहीं नही दिखता। लोग नौकरी के या किसी और मजबूरी से, गलियाते हुए, खानापूर्ती के लिए इन समारोहों में सम्मिलित होते हैं। स्वतंत्रता दिवस स्कूल के बच्चों तक सिमट कर रह गया है या फिर हम पुराने रेकार्डों को धो-पौंछ कर, निशानी के तौर पर कुछ घंटों के लिए बजा अपने फ़र्ज की इतिश्री कर लेते हैं। क्या करें जब चारों ओर हताशा, निराशा, वैमनस्य, खून-खराबा, भ्रष्टाचार इस कदर हावी हों तो यह भी कहने में संकोच होता है कि आईए हम सब मिल कर बेहतर भारत के लिए कोई संकल्प लें। फिर भी प्रकृति के नियमानुसार कि जो आरंभ होता है वह खत्म भी होता है तो एक बेहतर समय और इस बात की की आस में कि आने वाले समय में लोग खुद आगे बढ़ कर इस दिन को सम्मान देंगे, सबको इस दिवस की ढेरों शुभकामनाएं।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

ए वतन मेरे वतन, क्या करूं मैं अब जतन !

कविता / गीत

वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

सर जमीं से आसमां तक
तुझको है मेरा नमन
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

भूख से, मंहगाई से
जीना हुआ दुश्वार है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

क्या वतन का हाल है
भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचार है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

मद है,मदमस्त हैं
खौफ है, दहशत भी है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

भूख है गरीबी है
सेठ हैं, साहूकार हैं
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

अफसरों की शान है
मंत्रियों का मान है
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

आज गम के साए में
चल रहा मेरा वतन
वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन

वतन मेरे वतन
क्या करूं मैं अब जतन !
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स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई शुभकामनाएं

सोमवार, 2 अगस्त 2010

लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान में छत्तीसगढ़ के कोहिनूर

अभी तक घोषित परिणाम

- श्रीमती अल्पना देशपांडे - वर्ष की श्रेष्ठ चित्रकार
- संजीव तिवारी           - वर्ष के श्रेष्ठ क्षेत्रीय लेखक
- ललित शर्मा             - वर्ष के श्रेष्ठ गीतकार आंचलिक
- गिरीश पंकज           - वर्ष के श्रेष्ठ ब्लाग विचारक
- जी के अवधिया         - वर्ष के श्रेष्ठ विचारक

इन सभी को हार्दिक बधाई











रविवार, 1 अगस्त 2010

आमिर खान की नई फिल्म 'पिपली लाईव' का हीरो भिलाई निवासी!

क्या आप जानते हैं आमिर खान की आने वाली फिल्म 'पिपली लाईव' के हीरो 'नत्था' कौन हैं?

इस कतरन को क्लिक कर जानिए मायानगरी में भिलाई के ओंकार का जादू


शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

एक सवाल है छत्तीसगढ़ के ब्लोगर्स से ?

मुझे नहीं पता शायद ये ब्लॉग सही जगह है या नहीं सवाल पूछने का पर छत्तीसगढ़ के प्रमुख ब्लोगर इस ब्लॉग से जुड़े है वो भी विभिन्न क्षेत्रों से इस लिए मेरी पहुँच में यही सर्वश्रेष्ठ और सुलभ स्थान है अपनी जिज्ञासा शांत करने का ।

अब मेरा सवाल ये है कि क्या रोजगार और नियोजन जो कि शायद एक शासकीय पत्रिका है उसे स्कैन करके ब्लॉग पर दिया जा सकता है ?
इस पर कोई कानूनी विवाद या अन्य समस्या तो नहीं होगी ?


इंटरनेट पर अभी तक ये उपलब्ध नहीं हो पाया है और इसको ढूँढने में काफी परेशानी होती है लोगों को विशेषकर इसके पिछले संस्करण ।

रविवार, 11 जुलाई 2010

क्या सचमुच यही कालाधन है !!!

काला धन क्या है ! काला धन से सीधा-सीधा तात्पर्य ऎसे धन से है जो व्यवहारिक रूप से सरकार व आयकर विभाग की नजर से छिपा हुआ है,यह भी धन तो है पर लेखा-जोखा में नहीं है यह बडे-बडे व्यापारियों, राजनेताओं, अधिकारियों, माफ़ियाओं व हवाला कारोबारियों की मुट्ठी में अघोषित रूप से बंद पडा है, इसे न सिर्फ़ व्यवहार में सार्वजनिक रूप से लिया जा सकता है और न ही इसका सार्वजनिक रूप से उपभोग किया जाना संभव है, पर इतना तय है कि इस कालेधन से काले कारनामों को निर्भिकतापूर्वक संपादित किया जा सकता है और लुक-छिप कर इसका भरपूर उपभोग संभव है।

कालेधन का कोई पैमाना नही है यह छोटी मात्रा अथवा बडे पैमाने पर हो सकता है, दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जिन लोगों के पास ये धन है संभवत: उन्हें खुद भी इसकी मात्रा का ठीक-ठीक अनुमान न हो, कहने का तात्पर्य ये है कि सामान्यतौर पर इंसान कालेधन का ठीक से लेखा-जोखा नहीं रख पाता है, जाहिरा तौर पर वह कालाधन जो विदेशी बैंकों मे जमा है अथवा जो विदेशी कारोबारों में लगा है उसके ही आंकडे सही-सही मिल सकते हैं, पर जिन लोगों के पास ये घर, जमीन, बैंक लाकर्स व तिजोरियों में बंद पडा है उसका अनुमान लगा पाना बेहद कठिन है।

काला धन कहां से आता है!! ... काला धन कैसे बनता है!!! ... कालेधन की माया ही अपरमपार है, बात दर-असल ये है कि धन की उत्पत्ति वो भी काले रूप में ... क्या ये संभव है! ... जी हां, ये बिलकुल सम्भव है पर इसे शाब्दिक रूप में अभिव्यक्त करना बेहद कठिन है, वो इसलिये कि जिसकी उत्पत्ति के सूत्र हमें जाहिरा तौर पर बेहद सरल दिखाई देते हैं वास्तव में उतने सरल नहीं हैं ...

... हम बोलचाल की भाषा में रिश्वत की रकम, टैक्स चोरी की रकम इत्यादि को ही कालेधन के रूप में देखते हैं और उसे ही कालाधन मान लेते हैं ... मेरा मानना है कि ये कालेधन के सुक्ष्म हिस्से हैं, वो इसलिये कि रिश्वत के रूप में दी जाने वाली रकम तथा टैक्स चोरी के लिये व्यापारियों व कारोबारियों के हाथ में आने वाली रकम ... आखिर आती कहां से है ...

... अगर आने वाली रकम "व्हाईट मनी" है तो क्या ये संभव है कि देने वाला उसका लेखा-जोखा नहीं रखेगा और लेने वाले को काला-पीला करने का सुनहरा अवसर दे देगा ... नहीं ... बिलकुल नहीं ... बात दर-असल ये है कि ये रकम भी कालेधन का ही हिस्सा होती है ... इसलिये ही तो देने वाला देकर और लेने वाला लेकर ... पलटकर एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देखते ...

... तो फ़िर कालेधन कि मूल उत्पत्ति कहां से है ... कालेधन की उत्पत्ति की जड हमारे भ्रष्ट सिस्टम में है ... होता ये है कि जब किसी सरकारी कार्य के संपादन के लिये १००० करोड रुपये स्वीकृत होते हैं और काम होता है मात्र १०० करोड रुपयों का ... बचने वाले ९०० करोड रुपये स्वमेव कालेधन का रूप ले लेते हैं ... क्यों, क्योंकि इन बचे हुये ९०० करोड रुपयों का कोई लेखा-जोखा नहीं रहता, पर ये रकम बंटकर विभिन्न लोगों के हाथों/जेबों में बिखर जाती है ... और फ़िर शुरु होता है इसी बिखरी रकम से लेन-देन, खरीदी-बिक्री, रिश्वत व टैक्स चोरी, मौज-मस्ती, सैर-सपाटे जैसे कारनामें ... क्या सचमुच यही कालाधन है !!!!!

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कौन कहता है नक्सलवाद एक विचारधारा है !

कौन कहता है नक्सलवाद समस्या नहीं एक विचारधारा है, वो कौनसा बुद्धिजीवी वर्ग है या वे कौन से मानव अधिकार समर्थक हैं जो यह कहते हैं कि नक्सलवाद विचारधारा है .... क्या वे इसे प्रमाणित कर सकेंगे ? किसी भी लोकतंत्र में "विचारधारा या आंदोलन" हम उसे कह सकते हैं जो सार्वजनिक रूप से अपना पक्ष रखे .... कि बंदूकें हाथ में लेकर जंगल में छिप-छिप कर मारकाट, विस्फ़ोट कर जन-धन को क्षतिकारित करे

यदि अपने देश में लोकतंत्र होकर निरंकुश शासन अथवा तानाशाही प्रथा का बोलबाला होता तो यह कहा जा सकता था कि हाथ में बंदूकें जायज हैं ..... पर लोकतंत्र में बंदूकें आपराधिक मांसिकता दर्शित करती हैं, अपराध का बोध कराती हैं ... बंदूकें हाथ में लेकर, सार्वजनिक रूप से ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर बता कर फ़ांसी पर लटका कर या कत्लेआम कर, भय दहशत का माहौल पैदा कर भोले-भाले आदिवासी ग्रामीणों को अपना समर्थक बना लेना ... कौन कहता है यह प्रसंशनीय कार्य है ? ... कनपटी पर बंदूक रख कर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कलेक्टर, एसपी किसी से भी कुछ भी कार्य संपादित कराया जाना संभव है फ़िर ये तो आदिवासी ग्रामीण हैं

अगर कुछ तथाकथित लोग इसे विचारधारा ही मानते हैं तो वे ये बतायें कि वर्तमान में नक्सलवाद के क्या सिद्धांत, रूपरेखा, उद्देश्य हैं जिस पर नक्सलवाद काम कर रहा है .... दो-चार ऎसे कार्य भी परिलक्षित नहीं होते जो जनहित में किये गये हों, पर हिंसक वारदातें उनकी विचारधारा बयां कर रही हैं .... आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्याएं हर युग - हर काल में होती रही हैं और शायद आगे भी होती रहें .... पर समाज सुधार व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के लिये बनाये गये किसी भी ढांचे ने ऎसा नहीं किया होगा जो आज नक्सलवाद के नाम पर हो रहा है .... इस रास्ते पर चल कर वह कहां पहुंचना चाहते हैं .... क्या यह रास्ता एक अंधेरी गुफ़ा से निकल कर दूसरी अंधेरी गुफ़ा में जाकर समाप्त नहीं होता !

नक्सलवादी ढांचे के सदस्यों, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे बुद्धिजीवियों से यह प्रश्न है कि वे बताएं, नक्सलवाद ने क्या-क्या रचनात्मक कार्य किये हैं और क्या-क्या कर रहे हैं ..... शायद वे जवाब में निरुत्तर हो जायें ... क्योंकि यदि कोई रचनात्मक कार्य हो रहे होते तो वे कार्य दिखाई देते.... दिखाई देते तो ये प्रश्न ही नहीं उठता .... पर नक्सलवाद के कारनामें ... कत्लेआम ... लूटपाट ... मारकाट ... बारूदी सुरंगें ... विस्फ़ोट ... आगजनी ... जगजाहिर हैं ... अगर फ़िर भी कोई कहता है कि नक्सलवाद विचारधारा है तो बेहद निंदनीय है।

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