गुरुवार, 30 सितंबर 2010

हर पक्ष का ध्येय जब पूजा अर्चना ही है तो फिर विवाद क्यों?

विड़ंबना है या देश का दुर्भाग्य। ध्येय एक ही होने के बावजूद दसियों सालों से अयोध्या का विवाद क्यों है? जबकि हर पक्ष वहां पूजा, अर्चना ही करना चाहता है।
जिसकी पूजा करनी होती है वह श्रद्धेय होता है। उसके सामने झुकना पड़ता है। अपना बर्चस्व भूलाना पड़ता है। यहां लड़ाई है मालिक बनने की। अपने अहम की तुष्टी की। वही अहम जिसने विश्वविजयी, महा प्रतापी, ज्ञानवान, देवताओं के दर्प को भी चूर-चूर करने वाले रावण को भी नहीं छोड़ा था।

या फिर नजरों के सामने हैं - तिरुपति, वैष्णवदेवी या शिरड़ीं ?

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